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पौराणिक जैन इतिहास
व्याख्या करनेको प्रलुब्ध करता है-सुखमय जोवनसे आत्माकी शुद्धावस्थाका संकेत है, जब आत्मा ही सब कुछ अथवा समस्त पदार्थ आत्मास्वरूप होते हैं । फिर रागद्वेष रूपो कुफलका अात्मा श्रास्वादन करता है और जन्म, जरा, मृत्युमय संसारमें श्रा पड़ता है। श्रात्म-अानन्द समाप्त हो जाता है । यही शुद्धात्मा रूपी कल्पवृक्षका विलय अथवा ईडन-उद्यानसे पतन है। फिर ईश्वरके अभिशापको लिये जीवका अनन्त संसार प्रारम्भ हो जाता है, क्या यह मनुष्यका महा पतन नहीं है ? कुलकर तथा मानवसमाजका विकास
दूसरी महत्त्वकी बात यह है कि कुलकरवृत्तमें हम मानव समाजके क्रम विकासको स्पष्ट देखते हैं । प्रत्येक प्राचीन राष्ट्रके प्रारम्भिक काल में हम अादर्श युगकी कथा तो पाते हैं, साधारण स्थितिसे समाजके क्रमिक विकासका इतिवृत्त नहीं मिलता। किन्तु जैन साहित्यमें व्यक्तियोंके चरित्रके समान ही समाज-पुरुषका प्रारम्भसे वर्णन मिलता है जिसमें समाजके जीवन संग्राम तथा परिस्थितियोंके अनुकूल बननेका इतिहास निहित है। आधुनिक विचारक कौमटीका भी मत है कि 'मनुष्यके शारीरिक एवं मानसिक अध्ययनके पहिले मानव समाजका अध्ययन होना ही चाहिये । आधुनिक विद्वान मानते हैं कि प्राणि विज्ञानकी प्रणालीसे मानवसमाजके विकासका अध्ययन करके कौमटीने बड़ा उपकार किया है, तथापि उत्तरकालीन विकासवादो विद्वानोंका मत उनके उक्त विचारके विपरीत है। अर्थात् व्यक्तिकी उन्नति विकासमान सामाजिक प्रगतिको किसी सीमा तक सहचारिणी है । समाजके विकासका मानवविकासके समान होना अनिवार्य नहीं है। उत्तरोत्तर अधिक तृप्ति करने वाले कार्योंने मनुष्यका विकास किया है। किन्तु सामाजिक गठनकी अधारशिला तो वह क्षमता है जो प्रकृतिकी गम्भीरतम परिस्थितियों में भी मनुष्यको निर्वाचन और अनुगमन द्वारा बनाये रखती है; 'अधिकतम तृप्ति' नहीं । जैन कुलकरोंका वर्णन उक्त सामाजिक विकासका सजीव चित्र है। पहलेसे चले आये सुखसम्पत्तिकी अभिवृद्धि जैन कर्मभूमि ( अाधुनिक युग ) का स्वरूप नहीं है अपितु कल्पवृक्षोंके लयके कारण श्राकुल तथा त्रस्त लोगोंके अातंक एवं अनिष्टकी आशंकाओंको शान्त करते हुए वर्तमान मानव समाज को आगे बढ़ाना है । कर्मभूमिके आदिमें सबसे पहिले ज्योतिष्क देव दिखते हैं । अर्थात् प्रारम्भ ज्योतिष-विज्ञानसे होता है। इसके बाद मनुष्य अपने तथा पशुओं में भेद करता है, इससे अात्मरक्षाके लिए समस्त साधन जुटाता है । अपने हिंस्र साथियोंसे निपट लेनेके बाद मानव जीवनोपयोगी सामग्रीके जुटानेमें लग जाता है और इस प्रकार अपने वर्गके योग-क्षेमकी व्यवस्था करता है । इस प्रकार घरू व्यवस्थाके पश्चात् वह पशुओंको अपने कार्य में साधक बनाता है तथा पहलेके इन शत्रुत्रोंको सेवक बना लेता है। इसके उपरान्त वह अपने वर्गके शरीरकी चिन्ता करता है; जन्मसे ही बालककी पूरी परिचर्या प्रारम्भ होती है फलस्वरूप मनुष्य
१-ययपि जैन मान्यतानुसार न मुक्तका पुनः संसार प्रवेश संभव है और न ईश्वर के अभिशापसे पतन अथवा वरदान द्वारा अभ्युत्थान ही हो सकता है। ३५
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