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________________ अभागा श्री यशपाल, बी० ए०, एल-एल० बी० वह अभागा अब इस संसार में नहीं है। कुछ दिन हुए, अपने संघर्षमय जीवनसे उसने मुक्ति पा ली। अब वह चैनकी नींद सोता है । संसारने जिसका तिरस्कार किया, समाजने जिसे ठुकराया,उसीको मृत्युने अपनी शीतल गोदमें प्रेमपूर्वक आश्रय दे दिया। उस नरकंकालका चित्र बार बार मेरे नेत्रोंके समक्ष प्रा जाता है। मैं उसे नहीं देखना चाहता । उस अोरसे अांखें मूंद लेना चाहता हूं । बुद्धिजीवियोंको ऐसे दृश्य हाड़-मांसकी आंखोंसे देखनेका अवकाश ही कहां? बुद्धिकी पकड़में जी चीज आ जाती है, वही उनके कामकी है । शेष सब निरर्थक हैं । पर मेरे शरीरमें हृदय अब भी स्पन्दन करता है और बुद्धि पूर्णतया उसे नष्ट कर देनेके प्रयत्नमें अभी तक सफल नहीं हो पायी। इसीसे उस अभागेका चित्र प्रायः मेरे मस्तिष्कमें सजीव रूपसे चक्कर लगाता रहता है। हम लोगोंने अपनेको चारों ओरसे पक्को परिधिसे वेर रखा है। परिधि अभेद्य है' और जहां-जहां द्वार हैं वहां लोहेके ऊंचे-ऊंचे फाटक चढ़े हैं। बाहरका दुख-सुख हम कुछ भी अपने तक नहीं आने देना चाहते । फिर भी वायु तो उन्मुक्त है, वह कोई बन्धन नहीं मानती। इसीसे चार कदम पर बसे जमड़ार, मिनौरा, नयागाांव, अादिकी अोरसे उड़ कर हवा आती है, और वहां निवास करने वाले मानव नामधारी प्राणियों के दुख-दारिद्यकी कथाएं हम तक पहुंचा जाती है। x सौ-सवासौ घरोके इस जमड़ार गांवके उस नुक्कड़ पर जो टूटी-फूटी झोंपड़ी दीखती है, उसी में वह अभागा वर्षांसे अपने जीवन के दिन गिन रहा था। श्वास-रोगने उसका सारा दम खींच लिया था। तिल्लोने बढ़कर उसके पेटमें बाल-भर भी स्थान न छोड़ा था तथा उसके हाथ-पैर सूख कर सोंक-जैसे हो गये थे। चिथड़ोंमें अपनी लाजको ढके अहर्निश वह परमपितासे विनती किया करता था, “हे नाथ, तुममें दया है तो मुझे उठालो। मैं अब जीना नहीं चाहता।" ५८३
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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