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________________ वेदनीय कर्म और परीषह क्षुधा, श्रादि अनन्त बलको विरोधी हैं । क्षुधासे अनन्त बलमें बाधा अनिवार्य है अतः हम वेदनीयका फल मोहनीयके अभावमें सक्रिय किसी भी तरह नहीं मान सकते । क्षुधाकी वेदना हो और जीवमें उसका फल न हो यह संभव नहीं है। यदि जीवमें फल स्वीकार करते हैं तो क्षुधा का कार्य अनन्त बलमें बाधा होता है, वह भी मानना पड़ेगा, ऐसा मानने पर विरोध आता है। अतः मोहनीयके विना न तो वेदनीय की प्रकृतियां जीव विपाकी होती हैं और न परीषहमें ही कारण होती हैं । वास्तवमें परीषह शब्द ही मोहनीयके साहचर्य का द्योतक है । परिषहका सम्बन्ध केवलीसे नहीं है-- इसके साथ यह भी विचारना चहिये कि उमास्वामी ने संवरके भेद प्रतिपादन करते हुए'स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परिषहजय चारित्रैः ।' सूत्र का प्रतिपादन किया है। इस संवरके प्रकरणमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षाकी अपेक्षा केवलीके नहीं है, अंतररायके क्षय हो जानेसे अनन्त बलके सद्भावसे परिषह जय करने का प्रश्न नहीं है। दूसरा सूत्र है 'मार्गाच्यवन निर्जरार्थं' परिषोढव्याः परीषहाः।' इस सूत्रमें परीषह क्यों सहन करना चाहिये, इसके दो कारण बताये हैं । १संवरके मार्गसे च्युत न होनेके लिए २-निर्जराके लिए परीषह सहन करना चाहिये । परीषह सहन करनेके लिए इन दोनों कारणोंकी केवलीमें कोई अपेक्षा नहीं है । संवरके मार्गसे व्युत होने का तो वहां प्रश्न ही नहीं है। निर्जरा भी केवलीके परीषह जयसे नहीं होती है। अतः परीषह जयका जो वर्णन किया गया है वह केवली की अपेक्षासे नहीं माना जा सकता । परिषहोंका कर्मों के अनुसार विभाजन करते हुए सामान्य रूपसे वेदनीय कर्म की अपेक्षासे कुछ वर्णन किया गया है। पूर्वापर संबंधकी अपेक्षा उसका जो विशेषार्थ किया जाता है, उस अर्थ को खोंचातानी का अर्थ नहीं कहा जा सकता। इसके साथ यह भी विचारणीय है कि यतः परीषहों का संबन्ध असाता वेदनीय से है, अतः असाता वेदनीयका उदय केवली अवस्थामें कार्यकारी हो सकता है या नहीं ? असाता-वेदनीयके उदयको सफल बनानेमें अंतराय कर्मके उदयकी भी आवश्यकता होती है । यदि असाता का उदय हो और किसी तरहका अंतराय उपस्थित न हो तो उस असाताका कोई असर नहीं हो सकता । असाता अंतरायकी उपस्थितिमें ही कार्यकारी होता है, किंतु अंतरायके क्षय हो जाने पर असाता उदयका कोई वास्तविक असर नहीं हो सकता । केवलीके अंतरायका पूर्ण क्षय हो चुका है, फिर वहां असातावेदनीय जन्य क्षुधा, आदि परीषह रूपमें कैसे कार्यकारी हो सकती हैं ? परिपहोंका कर्मोंसे सम्बन्ध-- ____ तत्त्वार्थ सूत्रके नवमें अध्यायके नवमें सूत्रमें बाईस परीषहोंका वर्णन है, इसके वाद १०,११,१२ इन तीन सूत्रोंमें किन किन गुणस्थानोंमें कौन कौनसी परीषह हो सकती हैं, यह बतलाया गया है। १३ से १४९
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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