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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
उसके सभी पर्यायों के साथ नहीं जान सकेगा । और जब एक ही द्रव्यको उसके अनंत पर्यायोंके साथ नहीं जान सकेगा तो वह सर्वज्ञ कैसे होगा। दूसरी बात यह भी है कि यदि अर्थों की अपेक्षा करके ज्ञान क्रमशः उत्पन्न होता है, ऐसा माना जाय तब कोई ज्ञान नित्य क्षायिक और सर्व विषयक सिद्ध होगा नहीं । यही तो सर्वज्ञज्ञानका माहात्म्य है कि वह नित्य त्रैकालिक सभी विषयोंको युगपद् जानता है। किन्तु जो पर्याय अनुत्पन्न हैं और विनष्ट हैं ऐसे अद्भुत पर्यायोंको केवलज्ञानी किस प्रकार जानता है इस प्रश्नका उत्तर उन्होंने दिया है कि समस्त द्रव्योंके सद्भूत और असद्भूत सभी पर्याय विशेष रूपसे वर्तमान कालिक पर्यायों की तरह स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं । यही तो उस ज्ञानकी दिव्यता है कि वह अज्ञात और नष्ट दोनों पर्यायोंको जान लेता है।
मतिज्ञान
प्राचार्य कंदकुंदने मतिज्ञानके भेदोंका निरूपण प्राचीन परंपरा के अनुकूल अवग्रहादि रूपसे करके ही सन्तोष नहीं माना किन्तु अन्य प्रकारसे भी किया है। वाचकने एक जीवमें अधिकसे अधिक चार ज्ञानोंका यौगपद्य मानकर भी कहा है कि उन चारोंका उपयोग तो क्रमशः ही होगा' । अतएव यह तो निश्चित है कि वाचकने मतिज्ञानादिके लब्धि और उपयोग ऐसे दो भेदोंको स्वीकार किया ही है। किंतु
आचार्य कुन्दकुन्दने मतिज्ञानके उपलब्धि, भावना और उपयोग ये तीन भेद भी किये हैं। प्रस्तुतमें उपलब्धि, लब्धि-समानार्थक नहीं है । वाचकका मतिउपयोग ही उपलब्धि शब्दसे विवक्षित जान पड़ता है। इन्द्रिय जन्य ज्ञानोंके लिए दार्शनिकोंमें उपलब्धि शब्द प्रसिद्ध ही है। उसी शब्दका प्रयोग प्राचार्यने उसी अर्थमें यहांपर किया है। इन्द्रिय जन्य ज्ञान के बाद मनुष्य उपलब्ध विषयमें संस्कार दृढ करनेके लिए जो मनन करता है वह भावना है। इस ज्ञानमें मनकी मुख्यता है । इसके बाद उपयोग है। यहां उपयोग शब्द का अर्थ सिर्फ ज्ञान व्यापार नहीं किन्तु भावित विषयमें आत्माकी तन्मयता ही उपयोग शब्दसे आचार्यको इष्ट है । ऐसा जान पड़ता है। श्रुतज्ञान
वाचक उमास्वामि ने 'प्रमाणनयैरधिगमः” इस सूत्रमें नयीको प्रमाणसे पृथक रखा है।
.१ प्रबचन. १-४८. । २. प्रवचन. १४९।
५. ,. ४-३७,३८.। ६- , १-३९. । ७ तत्वार्थ. भाग १-३१ । ८ पंचास्ति. ४२,।