SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ ही उनके अनन्य भक्त बन जाते हैं। उपदेश देनेकी शैली अनुपम है। आप बिल्कुल निस्पृह हो प्राणि मात्रके कल्याण को सदैव कामना करते हैं । यदि कोई विवादास्पद विषय आपके समक्ष उपस्थित किया जाता है तो आप अपनी प्रकाण्ड विद्वत्ता द्वारा दोनों ही पक्षोंको युक्तियुक्त आगमिक उत्तर द्वारा सन्तुष्ट कर देते हैं। आपको विद्या प्रसारका व्यसन है, जिसकी साक्षी समाजके महाविद्यालय हैं, आपने विद्यादानके लिए जो अपनी निजी सम्पत्तिका उत्सर्ग किया है वह वह विद्याप्रेमी विद्वानोंके लिए भी अनुकरणीय है । आप चिरायु होकर जैनधर्मकी सेवा करते हुए श्रात्मोद्धारके साथ साथ लोकहित भी करते रहें यही मेरी भावना है। अजमेर - -(सर सेठ ) भागचन्द्र सोनी पूज्य श्री १०५ वाजीके निकट आनेका जिन्हें भी अवसर मिल सका है वे उनकी विशालता और सौजन्यसे मुग्ध हुए बिना नहीं रह सके । उनकी विदवत्ता और प्रतिभाशाली व्यक्तित्वसे कौन ऐसा है जो कि प्रभावित और चमत्कृत न हुआ हो ? उनकी कल्याणी वाणीने हमारे जनमनको शुद्ध और संस्कृत करनेमें जो अमूल्य सहायता की है उसके हम सभी चिर अाभारी रहेंगे। युग प्रवर्तक जैनधर्मके प्रकाश स्तम्भ श्री १०५ वर्णाजी की स्मृति सामाजिक जीवनमें सदैव जगमग रहेगी। उन्हें स्मरण कर हम सदैव पुलकित प्रोत्साहित होते रहे हैं और होते रहे गे । बम्बई ] ( शाहु ) श्रेयान्सप्रसाद प्रातः स्मरणी पूज्यपाद पण्डित गणेगप्रसाद जी वर्णी न्यायाचार्य के अभिनन्दन समारोहके शुभ अवसर पर उनके प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए मैं अपना अहोभाग्य समझता हूं। पूज्य वर्णीजी ने जैनसमाजके अज्ञान तिमिरको दर करनेका अहर्निश प्रयत्न किया है। आपके द्वारा संस्थापित श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशी आदि विद्यालय और गुरुकुल आदि संस्थाएं जैनसमाजमें शिक्षा प्रचारका श्रादर्श कार्य कर रही हैं । इन संस्थानोंमें शिक्षा प्राप्त करके तयार हुए अनेक विद्वान् जैन समाज और देशकी जो अनुपम सेवा कर रहे हैं उससे भारतवर्षमें जैनसमाजका मस्तक सदैवके लिए ऊंचा हो गया है। पूज्य वणोंजी जन्मजात अजैन होते हुए भी अपनी तीक्ष्ण दृष्टि द्वारा जिस प्रकार जैनधर्मको खोज सके तथा उसके प्रतिभाशाली विद्वान त्यागी पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं वह सबोंके लिए अनुकरणीय होते हुए भी एक श्रद्धाकी वस्तु है । वांजीके दर्शन मात्रसे जो अानन्द पाता है वह उस समय और भी अकथनीय हो जाता चौतीस
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy