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________________ जैनधर्म में कालद्रव्य . जैन धर्मकी समस्त प्रकिया इसलिए है कि बद्ध आत्माका विकास हो और वह सिद्धत्वको प्राप्त कर सके । इस प्रक्रियामें भौतिक जगत उस क्षेत्रका काम देता है जिसमें जीवका अजीवसे संग्राम होता है और अन्तमें वह विजयी होता है। ___ जैन धर्ममें काल द्रव्यको जिस मात्रामें यथार्थता एवं अनिवार्य पदार्थता प्राप्त हुई वह भारतके अन्य किसी दर्शन में नहीं मिलती, केवल न्यायवैशेषिक ही एक ऐसा दर्शन है जिसने इसका पदार्थ रूपसे विवेचन किया है । अाधुनिक बौद्धिक जगत्में भी, दार्शनिक, भौतिक विज्ञानके पंडित, गणितज्ञ तथा मनोवैज्ञानिकोंके सामने कालकी समस्या है । फलतः स्याद्वादने काल द्रव्यको किस दृष्टि से देखा है इसका प्रकाशन आजकी विचारधारा की निश्चित ही सहायता कर सकेगा। काल द्रव्यका स्वरूप ऊपर देख चुके हैं कि जैन दार्शनिकोंने कालके निश्चय तथा व्यवहार ये दो भेद किये हैं। पूर्ण लोकाकाशके आकाश प्रदेशोंमें व्याप्त कालाणु ही निश्चय काल हैं । इन कालाणुओंमें बंधका कारण वह शक्ति नहीं है जिसके कारण ये स्कन्ध रूप धारण कर सकें। अतएव रत्नोंकी राशिसे२ इनकी तुलना की जाती है । इस उपमाका अाधार केवल इतना ही है कि कालाणु मालामें बद्ध रत्नोंके समान पृथक पृथक् ही रहते हैं और अस्तिकाय रूप धारण नहीं करते । क्योंकि अस्तिकाय वही द्रव्य कहलाता है जिसमें अस्तित्व तथा कायत्व ये दोनों धर्म हों। कालाणुत्रोंमें अस्तित्व मात्र है कायत्व नहीं है फलतः उसे अस्तिकायोंमें नहीं गिना है । शेष पांचों द्रव्य अस्तिकाय हैं क्योंकि उनमें कायत्व. अर्थात् बहु-प्रदेशित्व पाया जाता है। कालाणु ऊर्व प्रचय रूप होते हैं। इनमें अाकाश प्रदेशोंके समान तिर्यक्प्रचय नहीं होता। 'अक्रम घटनाअोंकी मालाका योग काल-द्रव्यका स्वरूप नहीं है अपितु भूतसे वर्तमान तक चली आयी स्थायित्वकी ( वर्तन। ) धारा ही उसका स्वरूप है" इस मान्यताको यहां प्रधानता दी गयी है । जगतकी वस्तुत्रोंमें ऊर्ध्वप्रचयकी मान्यताका मूलाधार संसारकी धटनाओंकी उत्तरोत्तर अग्रगामिता, वृद्धि तथा विकास ही मालूम देते हैं । तथा दूसरा हेतु कालाणुओंमें अस्तिकायताका अभाव तो स्पष्ट ही है। १ अजीव पुद्गल द्रव्य है जो कार्माण वर्गणाके रूपमें जीवसे चिपक जाता है . और उसके आत्मिक गुणोंको आवृय कर देता है। २ परमार्थकाल, मुख्खकाल तथा द्रव्वकाल निश्चयकालके नाम हैं, पर्याय काल तथा समय ये व्यवहार कालके नाम हैं। ३ द्रव्यसंग्रह-गाथा २२॥ ४ ए. चक्रवतीकृत पंचास्तिकाय समयसारकी भूमिका, तथा गाथा ४९ एवं उसकी टीका व. बी फैटगोन कृत प्रवचनसारका अनुवाद ।
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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