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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वर्तनाका महत्त्व स्थायित्वकी एकता (वर्तना) ही कालका प्रधान लक्षण है। यदि यह न हो तो संसार उड़ती हुई क्षणिकताका प्रदर्शन मात्र हो जायगा । यही कारण है कि अकलंकभट्ट' ऐसे महानू प्राचार्योंने कालद्रव्यमें 'वर्तना' को इतनी अधिक प्रधानता दी है! इसी स्थायित्व विशेषताके कारण जगतकी वस्तुत्रोंमें स्थायित्व तथा वृद्धि होती है । बर्गसनके अनुसार क्षेत्रविभागके कारण कालकी एकता है तथा एलेक्जेण्डरके मतसे क्षेत्र कालात्मक परिवर्तनका सांचा (प्रक्रिया) इसका कारण है किन्तु जैन दर्शन वर्तनाको ही इसका कारण मानता है। काल स्वरूपकी व्याख्या __ स्व स्वरूपकी अपेक्षा काल अणुरूप है किन्तु उसका लक्षण 'वर्तना' अथवा सातत्य है । समयमें पृथक्ता तथा एकता सहभावि हैं । यह बड़ा वैचित्र्य है किन्तु कालकी पृथकता तथा वर्तनामें समन्वय सिद्ध करनेके लिए श्री 'बर्टाण्ड रसल' द्वारा दिये गये भौतिक, मनोवैज्ञानिक तथा तार्किक हेतु जैन दृष्टिका ही समर्थन करते हैं । किन्तु इस आपत्तिको जैनधर्मकृत वस्तु स्वभाव व्यवस्था तथा कालका स्वरूप सहज ही सरल कर देते हैं । उत्पाद (नूतन पर्याय ), व्यय ( पूर्व पर्याय विनाश ) तथा प्रौव्य ( मूल द्रव्यका स्थायित्व ) ही द्रव्यका स्वरूप है। काल द्रव्यमें भी ये तीनों होते हैं । द्रव्य सामान्य ध्रुवत्व और पर्यायत्वमें कोई विरोध नहीं है उसी प्रकार कालकी प्रत्येक क्षणकी पृथकता तथा वर्तनामें कोई पूर्वापर विरोध नहीं है। जैन दर्शनानुसार प्रतिक्षणकी पर्याय रूपता तथा वर्तना (स्थायित्व ) अथवा विनाश और स्थायित्व साथ ही साथ चलते हैं। परिणाम हेतुता वस्तुओंके परिवर्तन तथा कालकी जैनधर्म सम्मत सापेक्षताका सिद्धान्त जैन मान्यताकी रोचक वस्तु है । श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं 'काल वही है जो वस्तुके परिवर्तनमें सहायता करे ।" किन्तु काल परिवर्तनोंका निमित्त ही है जैसे कि कुम्भकारके चक्रके नीचेका पाषाण चक्रकी गतिमें निमित्त होता है वह गतिको उत्पन्न नहीं करता" । 'समय स्वमेव सद्भूत कारण है' बर्गसनकी इस मान्यताके यह प्रतिकूल पड़ता है । फलतः इसे हम कालकी निमित्तता तथा उपादानताका विवाद कह सकते हैं । १ "वर्तनाग्रहणमादी अभ्यर्हितत्वात् । राजवार्तिक पृ० २२९ २ 'अवर नोलेज ओफ एक्सटर्नल वर्ल्ड' पृ० १४५ ३ तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ सू० ३० । ४ द्रव्यसंग्रह गाथा ११ । ५ "स्वकीयोपादानरूपेण स्वमेव परिणममानानां पदार्थानां कुम्भकारचक्रायाघस्तन शिलावत् । ‘पदार्थपरिणते यत्सहकारित्वं सा वर्तना मन्यते ॥” (पूर्वोक्त गाथा २१ की वृत्ति) १७४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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