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________________ जैनसाहित्य में राजनीति श्री पं० पन्नालाल जैन 'वसन्त' साहित्याचार्य, आदि । विशाल संस्कृत साहित्य में यद्यपि शतियोंसे मौलिक कृतियोंकी वृद्धि नहीं हुई है तथापि कोई ऐसा विषय नहीं जिसके बीज उसमें न हों। जैन संस्कृत साहित्य उसका इतना विशाल एवं सर्वाङ्गीण- भाग है कि उसके विना संस्कृत साहित्यकी कल्पना नहीं की जा सकती । उदाहरण के लिए राजनीतिको ही लीजिये; इसके वर्णन विविध रूपों में संस्कृत साहित्य में भरे पड़े हैं । विशेषकर 'संसार - शरीर भोग- निर्विण्णता' के प्रधान प्रतिष्ठापक जैन साहित्य में; जैसा कि निम्न संक्षिप्त वर्णन से स्पष्ट हो जायगा । राजा - 1 राजनीतिका उद्गम राजा और राजसे है अतः उसके विचार पूर्वक ही आगे बढ़ा जा सकता भोगभूमिमें कोई राजा नहीं होता परन्तु कर्मभूमिके प्रारम्भ होते ही उसकी आवश्यकताका अनुभव होता है; अर्थात् जहां समानता है, लोग अपना अपना कर्त्तव्य स्वयं पालन करते हैं वहां राजाकी श्रावश्यकता नहीं होती परन्तु जहां जनता में विषमता, निर्धनता सघनता, ऊंच-नीच श्रादिकी भावना उत्पन्न होती है वहां पारस्परिक संघर्ष स्वाभाविक हो जाता है । शिष्ट पुरुष कष्ट में पड़ जाते है और दुष्ट मनुष्य अपनी उदण्डता से श्रानन्द उड़ाते हैं । कर्मभूमिके इस अनैतिक वातावरण से जनताकी रक्षा करनेके लिए ही राजाका श्राविर्भाव कुलकरों के रुपमें होता है । श्राचार्य जिनसेनके महापुराण में लिखा है कि कुलकरोंके समय दण्डव्यवस्था केवल 'हा' 'मा' और 'धिक्' के रूप में थी परन्तु जैसे जैसे लोगों में अनैतिकता बढ़ती गयी वैसे वैसे दण्डव्यवस्था में परिवर्तन होते गये । प्रारम्भमें एक कुलकर ही अपने बलसे समस्त भारत खण्डका शासन करनेके लिए पर्याप्त था किन्तु बाद में धीरे-धीरे, अनेक राजाओंकी ( शासकों की ) श्रावश्यकता पड़ने लगी । इस प्रकार स्पष्ट हैं कि राजा सृष्टिका सेवक योग्य पुरुष था । उसका जीवन निरन्तर पर पालनके लिए ही था । जैनाचार्यों ने साम्राज्यपदको सात' परम स्थानों में गिनकर राजाके माहत्म्य की घोषणा की है। जो राजा अपने जीवनको केवल भोग विलास काही साधन समझते हैं वे आत्म विस्तृत कर्तव्य ज्ञानसे शून्य हैं। अपने ऊपर पूर्ण राष्ट्रके जीवन १ सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिव्रज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणञ्चेति सप्तकम् || ( महापुराण) १ ४६ ३६१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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