SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दिया है। अब तूं ही घरका सब काम-काज देखना।" बहू अपने ससुरकी बात सुन कर प्रसन्न हुई । अपने धरका सब काम सम्हाल लिया। अब वह धरके काममें इतनी संलग्न रहने लगी कि उसे भोजन करनेका समय भी बड़ी कठिनतासे मिलता। वह साज-शृङ्गार सब भूल गयी। एक दिन दासीने श्राकर कहा-"बहूजी ! आप उस दिन किसी पुरुषकी बात करती थीं । मैंने एक पुरुषकी खोज की है। आपकी आज्ञा हो तो उसे बुलाऊं ?" बहू ने उतर दिया-“दासी ! वह समय दूर गया । इस समय मुझे मरनेका भी अवकाश नहीं, तू पर-पुरुषकी बात करती है।" असंतोष बुरी चीज है _____ कोई बुढ़िया गोबर पाथ पाथ कर अपनी गुजर करती थी। उसने व्यंतरदेवकी आराधना की । व्यंतर बुढ़ियासे बहुत प्रसन्न हुआ और देव-प्रसादसे उसके गोबरके सब उपले रतन बन गये । बुढ़िया खूब धनवान हो गयी। उसने चार कोठोंका एक सुन्दर भवन बनवा लिया और वह सुखसे रहने लगी । एक दिन बुढियाके घर उसकी एक पड़ोसन आयी और उसने बातों बातोंमें सब पता लगा लिया कि बढ़िया इतनी जल्दी धनी कैसे बन गयी। पड़ोसनको बुढ़ियासे बड़ी ईर्ष्या हुई और उसने भी व्यंतरदेवकी आराधना शुरू कर दी । व्यंतर प्रसन्न होकर उपस्थित हुआ और उसने वर मांगनेको कहा। पड़ोसनने कहा-“मैं चाहती हूं जो कोई वस्तु तुम बुढ़ियाको दो वह मेरे दुगुनी हो जाय ।" व्यंतरने कहा "बहुत अच्छा।" ___अब जो वस्तु बुढ़िया मांगती वह उसकी पड़ोसनके घर दुगुनी हो जाती। बुढ़ियाके घर चार कोठोंका एक भवन था तो उसकी पड़ोसनके दो भवन थे । इसी प्रकार और भी जो सामान बुढ़ियाके था, उससे दुगुना उसकी पड़ोसनके घर था । बुढ़ियाको जब इस बातका पता लगा तो वह अपने मनमें बहुत कुढ़ी। उसने क्रोधमें आकर व्यंतरसे वरदान मांगा कि उसका चार कोठोंवाला भवन गिर पड़े और उसके स्थानपर एक घासकी कुटिया बन जाय । बस उसकी पड़ोसनके भी दोनों भवन नष्ट हो गये और उसकी जगह दो घासकी कुटियां बन गयीं । बुढ़ियाको इससे भी संतोष न हुआ। उसने दूसरा वर मांगा "मेरी एक श्रांख फूट जाय ।” फलतः उसकी पड़ोसनकी दोनों आखें फूट गयी। तत्पश्चात् बुढ़ियाने कहा "मेरे एक हाथ और एक पैर रह जाय, "बस उसकी पड़ोसनके दोनों हाथ और दोनों पांव नष्ट हो गये । अब बिचारी पड़ोसन पड़ी पड़ी सोचने लगी कि मैं क्या करू', यह सब मेरे असंतोषका फल है। यदि मैं बुढ़ियाके धनको देख कर ईर्ष्या न करती और संतोषसे जीवन बिताती तो मेरी यह दशा न होती।" ३६०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy