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________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ और सम्राटों ऐसे श्रेष्ठ भवन, मोटर, वायु-जलयान आदि वाहन, शय्या कुर्सी- सोफा ( श्रासन ), आदिके जुटाने में हीं जीवन विता रहा है वे सब अनित्य हैं । १ युगाचार्य के इस सूपका भाग्य स्वामी कार्तिकेय के मुख से सुननेको मिलता है—'जन्म मरणाके साथ, यौवन वार्धक्यको प्राचलमें बांधे तथा लक्ष्मी अन्तरंग में विनाश छिपाये खाती है। लक्ष्मीमें विनाश छिपा है ? हां, यदि ऐसा न होता तो 'पुण्यात्म | पौराणिक युगके चक्रवर्ती तथा प्रतापी कैसर, हिटलर, आदिका विभव कहां गया ? तब दूसरोंकी कैसे स्थिर रहेगी । कुलीन, धीर, पंडित सुभट, पूज्य ( धर्म गुरु, आदि ) धर्मात्मा, सुन्दर, सज्जन तथा महा पराक्रमियोंकी समस्त सम्पत्तियां देखते देखते घुल जाती है।' तब इसका क्या किया जाय दो दिनकी चांदनी तथा जल तरंगके समान चञ्चला इस लक्ष्मी के दो ही उपयोग है अपनी आवश्यकताकी पूर्ति करो तथा शेष दूसरोंको दे दो।' तो लोग इतनी अधिक सम्पति क्यों कमा रहे हैं? 'वे श्रात्मवञ्चक है उनका मनुष्य जीवन व्यर्थ है क्योंकि वे लक्ष्मी उक्त दो उपयोग नहीं करते हैं । अथवा उसे ( लक्ष्मीको ) कहीं पर रखकर पत्थरके समान जड़ तथा भारभूत कर रहे हैं। इस प्रकार उनके गाढ़े पसीनेकी कमायी भी दूसरोंकी हो जाती है। क्योंकि वह जगतके ठग राजा अथवा उद्योगपति अथवा कुटुम्बियोंके काम श्रावेगी ।' तब क्या करे ? 'सीधा मार्ग है । लक्ष्मीको बढ़ानेमें आलस्य मत करो तथा सदैव उसे कुटुम्ब, ग्राम, पुर, जनपद देश तथा विश्वके प्रति अपने विविध कर्तव्योंकी पूर्ति के लिए व्यय करते रहो। लक्ष्मी उसीकी सफल है जो सम्पत्ति उक्त स्वरूपको समझकर अभावग्रस्त लोगोंको कर्त्तव्य परायण बनानेके लिए, किसी भी प्रकार के प्रतिफलकी आशा न करके अनवरत देता रहता है।' यही कारण है कि जैन श्राचार शास्त्रमें दान उतना ही आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है जितनी देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, विनय, व्रत, आहार, आदि हैं । इस व्यवस्थाका असाधारण महत्व यह है कि एक ओर मनुष्य न्यायपूर्वक अधिक से अधिक कमाने में शिथिलता नही कर सकता तथा दूसरी ओर उसे अपनी आवश्यकताओं से अधिक मात्रा में रोक नहीं सकता अन्यथा वह परिग्रही ( हत्यारे के समान पापी ) हो जायगा दान रूपसे उसे अपनी न्यायोपार्जित सम्पत्तिका उत्सर्ग करता हुआ ही वह धार्मिक (नैतिक नागरिक ) हो सकता है । १ "वरभवण जाणवाहण सयणासण देवमणुधरायाणं । मादु पिदु सजण मिश्र समधिगो व पिदिवियाणिचा ||" (वारस अगुवेखावा गा. ३) २ स्वामी कर्त्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ५ | १३ स्वामी कर्त्तिकेभानुप्रेक्षा गा० १०-३० । इनमें 'अणावरयं देहि' । "दिल लोबान तथा निरवेरवो' पद विशेष महलके हैं। ४. जो इमान छे अगवरयं देहि धम्मक " (कार्तिकेय गा० ११ ५. "अनुग्रहार्थस्वातिसग दानम् ।" "विधि-द्रव्यदातु पात्र विशेषात्तद्विशेषः " दानप्रकरण सर्व अति विस्तृत है । तत्वार्थ सूत्र ७, ३८,३९ ) १८८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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