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________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ गया था कुण्डलपुरके मन्दिरोंमें छठी शतीकी जो मूर्तियां पायी जाती हैं वे सब इसी मन्दिरसे लायी गयी थी। सड़कके किनारे पीपल के वृक्षकी छाया में एक सुन्दर चबूतरा बना हुआ है । रुक्मणी मठ के कुछ अवशेषों को इस पर सजाया हुआ है । इतिहासज्ञ आज भी इस दुविधा में हैं कि छठी शताब्दी में ऐसी कौनसी घटना हुई थी जिसके कारण इस स्थान पर बड़े बाबाकी ऐसी विशाल मूर्तिका निर्माण हुआ । फिर भी यह तो स्मरण रखना ही चाहिये कि उस समय यह स्थान गुप्त शासकोंके राज्यमें था और वे जैनधर्म के अनुयायी थे । कुछ इतिहासज्ञोंका ऐसा मत है कि यह वही कुण्डलपुर है जहांसे महामुनि श्री निर्वाण प्राप्त किया था, और तभी से यह स्थान पूज्य माना जाने लगा है। किन्तु जब तक इस विषयका समस्त जैन प्रमाण एक मत से समर्थन न करें तबतक निश्चितरूपसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता | बुन्देलेराजा यह बात निर्विवाद है कि बुन्देले राजाओं में यह स्थान अति प्रसिद्ध था और वे इसे पूज्य मानते थे, क्योंकि इन मन्दिरोंके पुनर्निर्माण में तथा प्रबन्ध में उनकी गहरी दिलचस्पीके प्रमाण मिलते हैं | बड़े बाबा के मन्दिरके प्रवेश द्वार पर लगे संस्कृत शिलालेख से इस बातका समर्थन होता है । इसके सिवा बहुत से ऐतिहासिक उल्लेख यह बतलाते हैं कि बुन्देले राजा इस मन्दिरका बड़ा सन्मान करते थे । एक समय धूप, वर्षा और तूफानके भयंकर थपेड़ोंने इस विशाल कृतिको जमीन्दोज कर दिया था और बड़े बाबाका प्रसिद्ध मन्दिर मलवेका ढेर बन गया था । किन्तु प्रकृतिके इन भयानक तूफानोंके बीच में भी बड़े बाबाकी विशाल मूर्तिको कोई हानि नहीं पहुंची। धीरे धीरे समय बीतता गया और यह मूर्ति मिट्टी, घास और झाड़ियोंसे ढक गयी । जंगली जानवरोंने इसे अपना आवास बना लिया और एक समय ऐसा श्रा पहुंचा कि कोई मनुष्य इसके दर्शन करनेका साहस भी नहीं कर सकता था । जो मनुष्य इस बात से परिचित थे कि यहां एक मन्दिर था, वह इसे 'मन्दिर टीला' कहने लगे । इस तरह इस शान्त एवं प्रसन्न स्थानको भय और विस्मयके पर्देने श्राच्छादित कर लिया और वर्षों तक भी यह पर्दा दूर न हो सका । इस तरह लगभग दो सौ वर्ष तक यह प्राचीन मन्दिर पृथ्वीके गर्भ में छिपा रहा । राजा छत्रसालद्वारा पुनर्निर्माण -- सं० १७५०के लगभग एक श्राजन्म ब्रह्मचारी जैन साधु नमिसागरने इस मन्दिर - टीले को देखा । भव्य मूर्तिके दर्शन से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने दुखी मनुष्य समाजके कल्याणके लिए मंदिर के २६८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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