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जैनाचार तथा विश्व-समस्याएं [ स्व. ] डा० वेणीप्रसाद, एम ए., डी. लिट., आदि
'धर्म' शब्दकी यद्यपि अनेक परिभाषाएं की गयी हैं तथापि इसकी मनोवैज्ञानिक परिभाषा 'अनुरूप करण' अथवा 'संस्करण' शब्द द्वारा ही की जा सकती है। किन्हीं भी आध्यात्मिक सिद्धान्तोंकी श्रद्धा हो पर उनका व्यापक तथा गम्भीर क्षेत्र पूर्ण विश्व ही होता है। फलतः जहां एक ओर धर्म जीव तथा अजीवके समस्त लक्षण तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धपर दृष्टि रखता है वहीं दूसरी ओर जीवनकी उन प्रक्रियाओं तथा संस्थानोंके व्यापक आधारोंका भी विशद निरूपण करता है जिनके द्वारा मनुष्य अपने स्वरूपकी व्यक्ति करता हुआ आत्म साक्षात्कारकी अोर जाता है। इन दोनोंमें से द्वितीय श्रादर्शको लेकर यहां मीमांसा करना उचित है कि विश्व विकासके लिए मानवके वर्द्धमान अनुभवोंके आधारपर सुनिश्चित किये गये नियमोंका धर्ममें कहां तक समावेश हुअा है। अर्थात् धर्म सामाजिक न्याय, क्षेम तथा सुखमें कहां तक साधक है। १-अहिंसा
सामाजिक दृष्टिसे जैन श्राचार-नियमोंका संक्षिप्त विश्लेषण करनेपर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत सामने आते हैं; अणुव्रत, गुणवत तथा शिक्षाव्रतोंके लक्षणादि पूर्वक विवेचनको छोड़कर यहां केवल इतना ही विचार करना है, कि सामाजिक-सम्बन्ध, दृष्टि तथा संगठन की अपेक्षासे अणुव्रतोंका क्या स्थान है, क्योंकि ये जैनाचारकी मूल भित्ति हैं। जीवके विकासके समस्त सिद्धांतोंमें अहिंसा प्रथम तथा महत्तम है इस सिद्धांतको प्राचीन श्राचार्यों ने जिस सूक्ष्म दृष्टि से स्वीकार किया है वह स्वयं ही उसके महत्त्वकी द्योतक है। बल-छलकी करणी--
- दूसरों को ठगने, दास बनाये रखने तथा उनसे अपनी स्वार्थ सिद्धि करानेके लिए व्यक्ति, समष्टि, वर्ग, जाति तथा राष्ट्रोंने अब तक पशुबल अर्थात् अपनी अधिकतर शारीरिक शक्तिका ही उपयोग किया है । अब तक यही मनुष्य के आपसी संबन्धों का नियामक रहा है । अर्थात् इन सबने मनुष्य होने के करण ही मनुष्य के सम्मान की तथा व्यक्तित्वके अाधारसे ही व्यक्तित्वके मूल्य की उपेक्षा की है । दूसरी ओर पशुबलसे आक्रान्त पक्षने भी छद्म और छलके आवरणमें उसकी अवहेलना तथा
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