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________________ जैनाचार तथा विश्व समस्याएं स्थानान्तरण किया है । बल और छल पूर्व-पूरक हैं और किसी भी सामाजिक व्यवहारका विश्लेषण करने पर एक ही घटना के दो पक्षोंके रूपमें सामने आते हैं। छलके व्यवहार का क्षेत्र सीमित नहीं है । प्रभुता तथा शोषण की योजना में बल द्वारा अपूर्ण अंशों की पूर्ति के लिए प्रभु लोग बलका व्यापक प्रयोग करते हैं । दासता श्रात्मरूप ( व्यक्तित्व ) की मौलिक व्यक्ति स्वतंत्रता के विरुद्ध पड़ती है । जिसे कि 'ग्राहम वालेसन' अन्तरंग विकास, विकासकी पूर्णता तथा सरसता एवं उत्कर्षाभिलाषा और विधायकता अर्थात् श्रात्म रूप की प्राप्तिका प्रेरक सतत साधन कहा है । फलतः दासता प्रतिरोध को उत्पन्न करती है। प्रभु लोग प्रतिरोधके मूलस्रोतों को अशक्त करने तथा प्रचार द्वारा श्राज्ञाकारी बनाने का मार्ग पकड़ते हैं, अर्थात् उच्च आदर्शों की महत्ता को गिराते हैं तथा भय लोभ, अकर्मण्यता, स्वार्थपरता, आदि को उत्तेजना देते है । बल और छलके द्वारा मानव वृत्तियों का ऐसा श्रनिच्छित समन्वय हुआ है कि एक श्राधुनिक समाज विज्ञानीको यही निष्कर्ष निकालना पड़ा कि "बल छल ही वे सिद्धान्त हैं जिनपर अब तक मानव संस्कृति अवलम्बित रही है ।" वर्तमान युगकी प्रधान समस्या याधुनिक युगने उक्त निष्कर्ष की सत्यता को अधिक चरितार्थ किया है । क्योंकि विगत सौ वर्षों में दूर वर्ती अथवा निकट वर्ती विविध जातियों, राष्ट्रों, संस्कृतियों तथा विचार धाराम्रों का जैसा पारस्परिक विनाश हुआ है वही इसका प्रबल साक्षी है । समन्वय अथवा पुनर्निर्माण अनिवार्य था, किन्तु इस दिशा में किये गये प्रयत्नों का प्रेरक भी दलगत प्रतिष्ठा रही है । फलतः 'बण्डरसल' ऐसे महान् वैज्ञानिक एवं दार्शनिक तक को भी कहना पड़ा कि राजनीति में प्रभुता का सिद्धान्त उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना भौतिक विज्ञान में शक्ति - ( Energy ) सिद्धान्त है | गत दो शतियां विज्ञानके सुविदित विकासका इतिहास हैं । इस युगने उन विधायक एवं व्यवस्थापक श्राविष्कारोंको किया है जिनके फल स्वरूप संसारके स्त्री, पुरुष तथा बालकोंने सुख तथा मनोरञ्जन, ज्ञान एवं संस्कार और शान्ति तथा सुरक्षाको पर्याप्त रूप में प्राप्त किया | किन्तु शक्तियों के उक्त श्राविष्कार कतिपय देशोंके कुछ विशेष वर्गों में ही हुए हैं और वह भी युद्धोंके विराम कालमें । कारण स्पष्ट हैं, इन्हें देश, वर्ग तथा सम्प्रदाय गत वञ्चना एवं निराशा, संघर्ष तथा घृणा के प्राचीन कुभावों का दासी बनाने के कारण ही ऐसा हुआ । स्थिति यह है कि आज मानव विपुल साधन सामग्रियों से घिरा रह कर भी अकिञ्चन है तथा विशद ज्योति की सुविधाओंके सद्भावमें भी गाढ़ान्धकार से ग्रस्त 1 निराशा एवं तज्जन्य अ-भ्रान्ति निरश से उत्पन्न भ्रान्ति ही वह गुत्थी है जिसे श्राजका विश्व दार्शनिकों तथा राजनीतिज्ञों की विभिन्न योजनाओं द्वारा सुलझाना चाहता है । पच्चीस वर्ष पहिले जब प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ १३३
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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