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________________ जैनधर्म में हिंसा भी समय जैन समाजका प्रत्येक आदमी आठवीं प्रतिमाधारी नहीं हो सकता। वर्तमान जैन समाजमें हजार पीछे एक आदमी भी मुश्किल से अणुव्रतधारी मिल सकेगा । आठवीं प्रतिमाधारी तो बहुत ही कम हैं । जैनियोंने जो कृषि, आदि कार्य छोड़ रक्खा है वह जैनी नहीं व्यापारी होनेके कारण छोड़ा है । दक्षिण प्रांत में जितने जैनी हैं, उनका बहुभाग कृषिजीवी ही है । कुछ लोगोंका यह खयाल है कि जैनी हो जानेसे ही मनुष्य, राष्ट्रके काम की चीज नहीं रहतावह राष्ट्रका भार बन जाता है । परन्तु यह भूल है यद्यपि इस भूलका बहुत कुछ उत्तरदायित्व वर्तमान जैन समाजपर भी है, परन्तु है यह भूल ही । राष्ट्रकी रक्षा के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं हैं जो जैनी न कर सकता हो, अथवा उस कार्य करने से उसके धार्मिक पदमें बाधा आती हो । जैनियोंके पौराणिक चित्र तो इस विषय में श्राशातीत उदारताका परिचय देते हैं । युद्धका काम पुराने समय में क्षत्रिय किया करते थे । प्रजाकी रक्षा के लिए अपराधियों को कठोर से कठोर दंड भी क्षत्रिय देते थे । इन्हीं क्षत्रियों में जैनियोंके प्रायः सभी महापुरुषोंका जन्म हुआ है। चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण, नव बलभद्र ये त्रेसठ शलाका पुरुष क्षत्रिय थे । चौदह कामदेव तथा अन्य हजारों आदर्श व्यक्ति क्षत्रिय थे । इन सभी को युद्ध और शासनका काम करना पड़ता था । धर्मके सबसे बड़े प्रचारक तीर्थंकर होते हैं । जन्म से ही इनका जीवन एक सांचे में ढला हुआ होता है। इनका सारा जीवन एक आदर्श जीवन होता । लेकिन तीर्थंकरोंमें शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथने तो आर्यखण्ड तथा पांच म्लेच्छ खण्डोंकी विजय की थी । भगवान नेमिनाथ भी युद्ध में शामिल हुए थे । इस युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरतका वैराग्यमय जीवन प्रसिद्ध है | लेकिन प्राणदण्डकी व्यवस्था इन्होंने निकाली थी । जैनियोंके पुराण तो युद्धोंसे भरे पड़े हैं; और उन युद्धों में अच्छे अच्छे अणुव्रतियोंने भी भाग लिया है। पद्मपुराण में लड़ायी पर जाते हुए क्षत्रियों के वर्णन में निम्न लिखित श्लोक ध्यान देने योग्य है - सम्यग्दर्शन सम्पन्नः शूरः कश्विदणुव्रती । पृष्ठतो वीक्ष्यते पल्या पुरस्त्रिदशकन्यया ॥ इसमें लिखा है कि 'किसी सम्यग्दृष्टि और अणुवती सिपाही को पीछे से पत्नी और सामने से देव कन्याएं देख रही हैं ।' गर जैन धर्म बिलकुल वैश्योंका ही धर्म होता तो उसके साहित्य में ऐसे दृश्य न होते । इसलिए यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि अपनी अपने कुटुम्बियोंकी, अपने धन और श्राजीविका की रक्षा के लिए जो हिंसा करनी पड़ती है वह संकल्पी हिंसा नहीं है, उसका त्यागी साधारण जैनी तो क्या ती भी नहीं होता। इससे साफ मालूम होता है कि जैन धर्मकी अहिंसा न तो अव्यवहार्य है, न संकुचित है. और न ऐहिक उन्नतिमें बाधक है। वर्तमानके अधिकांश जैनी अपनी कायरता या कर्मयताको छिपाने के लिए बड़ी बड़ी बातें किया करते हैं परंतु वास्तवमें अहिंसा के साधारण रूपके पालक भी नहीं होते । हां, ढोंग कई गुणा दिखलाते हैं । इन्हें देखकर अथवा इनके श्राचरण परसे जैन धर्मकी हिंसा नहीं समझी जा सकती । ४३१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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