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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके॥ कस्यापि दिशति हिंसाफल मेकमेव फलकाले । अन्यस्य सैव हिंसा दिशयहिंसाफलं विपुलम् ॥ हिंसाफलमपरस्य तु ददायहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनर्हिसा दिरात्यहिंसा फलं नान्यत् ॥ अववुध्य हिंस्य-हिंसक हिंसा-हिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगृहमानै निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥ ( पुरुषार्थसिद्ध युपाय) 'एक मनुष्य हिंसा ( द्रव्यहिंसा ) न करके भी हिंसक हो जाता है-अर्थात् हिंसाका फल प्राप्त करता है । दूसरा मनुष्य हिंसा करके भी हिंसक नहीं होता । एककी थोड़ी सी हिंसा भी बहुत फल देती है और दूसरेकी बड़ी भारी हिंसा भी थोड़ा फल देती है। किसीकी हिंसा हिंसाका फल देती है और किसीकी अहिंसा हिंसाका फल देती है । हिंस्य (जिसकी हिंसा की जाय ) क्या है ? हिंसक कौन है ? हिंसा क्या है ? और हिंसाका फल क्या है ? इन बातोंको अच्छी तरह समझकर हिंसाका त्याग करना चाहिये ।' यहां तक सामान्य अहिंसा का विवेचन किया गया है । जिसके भीतर महाव्रत भी शामिल हैं। पाठक देखेंगे कि इस अहिंसा महाव्रतका स्वरूप भी कितना व्यापक और व्यवहार्य है। अब हमें अहिंसा अणुव्रतके ऊपर थोड़ा सा विचार करना है जिसका पालन गृहस्थों द्वारा किया जाता है । गृहस्थोंकी अहिंसा हिंसा चार प्रकारकी होती हैं—संकल्पी, प्रारम्भी, उद्योगी और विरोधी । विना अपराधके, जान बूझकर, जब किसी जीवके प्राण लिये जाते हैं या उसे दुःख दिया जाता है तो वह संकल्पी हिंसा कहलाती है, जैसे कसायी पशुवध करता है । झाड़ने बुहारनेमें, रोटी बनानेमें, आने-जाने, आदिमें यत्नाचार रखते हुए भी जो हिंसा हो जाती है वह प्रारम्भी हिंसा कहलाती है। व्यापार, आदि कार्य में जो हिंसा हो जाती है उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं; जैसे अनाजका व्यापारी नहीं चाहता कि अनाजमें कीड़े पड़ें और मरें परन्तु प्रयत्न करनेपर भी कीड़े पड़ जाते हैं और मर जाते हैं । आत्मरक्षा या श्रात्मीयकी रक्षाके लिए जो हिंसा की जाती है वह विरोधी हिंसा है। ____ गृहस्थ स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्यागी नहीं है। सिर्फ त्रस जीवोंकी हिंसाका त्यागी है। लेकिन त्रस जीवोंकी उपर्युक्त चार प्रकारकी हिंसामें से वह सिर्फ संकल्पी हिंसाका त्याग करता है। कृषि, युद्ध, श्रादिमें होनेवाली हिंसा संकल्पी हिंसा नहीं है, इसलिए अहिंसाणुव्रती यह कर सकता है । अहिंसाणुव्रतका निर्दोष पालन दूसरी प्रतिमामें किया जाता है और कृषि, आदिका त्याग श्राटवी प्रतिमामें होता है । किसी १३०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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