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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ कुमारको राज्य दे दिया। राजपुत्र अभीचिकुमार भी चम्पाके राजा 'कोणिक' के पास चला गया और पितासे वैरभाव रखता हुआ वहीं सल्लेखना पूर्वक मरा तथा असुरकुमार देव हुआ । इस प्रकार इस युगमें जैनधर्मका सिन्धमें पुनः प्रचार हुअा था । इसके पश्चात भी पंजाबमें अनेक जैनमुनि आते रहे हैं । इनकी तालिका मुनिदर्शन विजयजीने "पंजाबमें जैनधर्म' शीर्षक लेखमें दी थी, किन्तु भ्रान्त तथा संदिग्ध होनेके कारण मैं उसका उल्लेख नहीं करूगा' । उद्योतन सूरी कृत "कुवलय माला"( वि० सं० ८३५ ) से पता चलता है कि चन्द्रभागा के तीरपर पव्वइया; वर्तमान चाचर नगरी थी। इस नगरीके राजा तोररायके गुरु हरिभक्त सूरि थे । यदि तोरराय तोरमाण थे तो हरिभद्र सूरिका समय वि०८०० न होकर ५५६-५८९ वि० के आगे पीछे होना चाहिये । अर्थात् इस समय चाचरके अासपास (साकल के आसपास नहीं) जैन आचार्योंका अच्छा प्रभाव था। इसो अन्तरालमें उपकेश गच्छ के कुछ प्राचार्य सिन्ध गये थे ऐसा इस गच्छके चरित्रसे पता लगता है । किन्तु इसका समर्थक कोई समकालीन प्रमाण नहीं है । खरतरगच्छ सिन्धमें गणधर सार्द्धशतक (सं० १२९५) तथा वृहद्वत्ति में उल्लेख है कि खरतर गच्छके प्राचार्य वल्लभसूरि कामरुक्कोट तथा जिनदत्तसूरि उच्चनगर गये थे। इसके बाद इस गच्छके मुनियोंके सिन्ध आवागमनकी धारा अविरलरूपसे बहती रही जैसा कि आगेके विवरणसे स्पष्ट है । इताना ही नहीं इस गच्छका सिन्धसे साक्षात् सम्बन्ध एक दशक पहिले तक रहा है। यति पूनमचन्द्रजी का स्वर्गवास अभी हुआ है इनके पूर्वज गत ३०० वर्षसे वहांके गुरुपदको सुशोभित करते आये थे । खरतर गच्छकी रुद्रपल्लीप बेगड़, प्राचार्य, आदि शाखाओंके विषय में न लिखकर यहां पर केवल जिनभद्रसूरि शाखासे सम्बद्ध सामग्री का ही संकलन किया है । अंचलगच्छके यतिचन्द्र द्वारा रचित कर्मग्रन्थकी "बालबोध भाषाटीका, तपा गच्छके प्राचार्य सोमसुन्दर सूरिका 'नव तत्त्वालोक बोध' लोकां गच्छकी उत्तर शाखाका 'उत्तरार्धगच्छ' नाम, इन गच्छोंके पाञ्चाल-सम्बन्धके सूचक हैं । इसके अतिरिक्त खरतर गच्छीय प्राचार्योंने १ तक्षशिलाके स्तृपका निर्माता संप्रति था । कालिकाचार्यका पाञ्चाल विहार, आदि भ्रान्तियों के उदाहरण हैं। २ सिन्धी ग्रन्थमालामें मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित। . ३ उपकेशिगच्छ प्रबन्धमें श्रीकक्कसूरि, पद्यप्रभ उपाध्याय, देवदत्त सूरि, आदिके उपाख्यान । ४ कितने ही स्थान अब सिन्धमें नहीं हैं, पहिले थे फलतः मैंने आसपासके सब ही स्थानोंका उल्लेख किया है। ५ गायकबाड़ ग्रन्थमाला (बड़ादा ) में प्रकाशित "अपभ्रंश काव्यत्रयी।' ६ मुनिदर्शनविजयजीकी इनके विषयकी मान्यताएं पोषक प्रमाण न होनेसे निराधार है। २६०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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