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________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी होनेके विवादमें अपनी शक्ति क्षीण करनेवाला मनुष्य कभी समझदार नहीं कहलाय गा। यहां यह बात हमेशा याद रखने की है कि यह अपेक्षावाद केवल आपेक्षिक धर्मों में ही लगेगा । वस्तुके अनुजीवी गुणोंमें इसका प्रयोग करना उचित नहीं है । श्रात्मा चेतन है, पुद्गल रूप-रस-गंध स्पर्श वाला है, आदि पदार्थों के आत्मभूत लक्षणात्मक धर्मों में स्याद्वादका प्रयोग नहीं हो सकता, क्योंकि ये आपेक्षिक नहीं है। यदि इन्हें भी किसी तरह आपेक्षिक बनाया जा सके तो फिर इनमें भी स्याद्वाद प्रक्रिया लागू होगी। सप्तभंगीका स्वरूप-- इस ( स्याद्वाद) प्रक्रिया में सात भंगोंका अवतार होता है इसलिए इसे सप्तभंगी न्याय भी कहते हैं । किसी वस्तु अथवा उसके गुण-धर्म आदिके विधि ( होना) प्रतिषेध ( न होना) की कल्पना करना सप्तभंगी कहलाती है । वे सात भंग ये हैं-अस्ति, नास्ति, अतिनास्ति, अवक्तव्य, अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति-अवक्तव्य, अस्तिनास्ति-श्रवक्तव्य । अर्थात् है, नहीं है, हैऔरनहीं है, कहा नहीं जा सकता है, है तो भी कहा नहीं जा सकता, नहीं है तो भी कहा नहीं जा सकता तथा है और नहीं है तो भी कहा नहीं जा सकता। क्रमभेद-- कोई कोई प्राचार्य इन भंगोंके क्रमभेदका भी उल्लेख करते हैं। वे अवक्तव्यको तीसरा और अस्ति नास्तिको चौथा भंग कहते हैं । इसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायके प्राचार्य सम्मिलित हैं किन्तु इस क्रम भेदसे तत्त्व विवेचनामें कोई अन्तर नहीं आता। अवक्तव्यको तीसरा भंग माननेका यह कारण है कि इन सात भंगोंमें अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन भंग प्रधान हैं । इन्हींसे द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी भंग बनते हैं अतः अवक्तव्यको तीसरा भंग भी मान लिया जाय तो कोई हानि नहीं है। नित्य, श्रादि प्रत्येक विषयोंमें इसी प्रकार सात सात भंग होंगे । इन सात भंगोंमें मुख्य भंग दो हैं-अस्ति और नास्ति । दोनोंको एक साथ कहनेकी इच्छासे, अवक्तव्य भंग बनता है, क्योंकि दोनोंको एक साथ कहनेकी शक्ति शब्दमें नहीं है। इस तरह तीन प्रधान भंग हो जाते हैं । १-असंयोगी (आस्ति नास्ति, अवक्तव्य ) २-द्विसंयोगी (आस्तिनास्ति, अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य ) और ३- त्रिसंयोगी (अास्ति नास्ति-अवक्तव्य) इनसे ही सात भंग बन जाते हैं। प्रयोग-- ___ पदार्थ स्वद्रव्य क्षेत्र कालकी अपेक्षा अस्ति रूप, और परद्रव्य क्षेत्र कालकी अपेक्षा नास्ति रूप है। द्रव्यका मतलव है गुणोंका समूह अपने गुण समूह की अपेक्षा होना ही द्रव्यकी अपेक्षा आस्तित्व कहलाता है । जैसे घड़ा, घड़े रूपसे अस्ति है और कपड़े रूपसे नास्ति, अर्थात् धड़ा; धड़ा ही है, कपड़ा नहीं है । अतः कहना चाहिये हर एक वस्तु स्वद्रव्यकी अपेक्षासे है, पर द्रव्यकी अपेक्षासे नहीं है। . २१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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