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________________ वर्णी- श्रभिनन्दन ग्रन्थ परन्तु काम तो ऐसे भी निःसन्देह हम लोग सर्वज्ञ नहीं हैं परन्तु दुनिया के सारे काम सर्वज्ञके द्वारा नहीं कराये जा सकते । हम लोग तो भविष्य के एक क्षणकी भी बात निश्चित नहीं जान सकते, किये जाते हैं जिनका सम्बन्ध भविष्य के क्षणोंसे ही नहीं, युगों से होता है । मनुष्यके पास जितना ज्ञान और शक्ति है उसका उचित उपयोग करना चाहिये । सर्वज्ञता प्राप्त नहीं है और थोड़े ज्ञानका उपयोग नहीं किया जा सकता, ऐसी हालत में मनुष्य बिलकुल अकर्मण्य हो जायगा । इसलिए उपलब्ध शक्तिका शुभ परिणामोंसे उपयोग करनेमें कोई पाप नहीं है । दूसरी बात यह है कि भौतिक जीवन सब कुछ नहीं है – भौतिक जीवनको सब कुछ समझनेवाले जीना ही नहीं जानते; वे जीते हुए भी मृतकके समान हैं । ऐसे भी अनेक अवसर आते हैं जब मनुष्य को स्वेच्छा से जीवनका त्याग करना पड़ता है । युद्ध में श्रात्मसमर्पण कर देने से या भाग जानेसे जान बच सकनेपर भी सच्चे वीर ये दोनों काम न करके मर जाते हैं । वह चीज जिसके लिए वे जीवनका त्याग कर देते हैं, अवश्य ही जीवनकी अपेक्षा बहुमूल्य हैं । इसलिए उनका यह काम श्रात्महत्या नहीं कहलाता। बहुत दिन हुए किसी पत्रमें हमने एक कहानी पढ़ी थी, उसका शीर्षक था " पतिहत्या में पातिव्रत्य" । उसका अंतिम कथानक यों था - युद्धक्षेत्रमें राजा घायल पड़ा था, रानी पास में बैठी थी । यवन सेना उन्हें कैद करनेके लिए आ रही थी । राजाने बड़े करुण स्वरमें रानीसे कहा “देवि ! तुम्हें पातिव्रत्यकी कठिन परीक्षा देनी पड़ेगी ।" रानीके स्वीकार करनेपर राजाने कहा कि, "मेरा जीवित शरीर यवनोंके हाथमें जावे इसके पहिले मेरे पेट में कटारी मार दो” । रानी घबरायी, किन्तु जब शत्रु बिलकुल पास श्रा गये, तब राजाने कहा ' देवि ! परीक्षा दो । सच्ची पतिव्रता बनो ।” रानीने राजाके पेटमें कटारी मार दी और उसी कटारीसे अपने जीवनका भी अंत कर दिया । यह था 'पतिहत्या में पातिव्रत्य' इससे मालूम होता है कि ऐसी भी चीजें हैं जिनके लिए जीवनका त्याग करना पड़ता है । श्रात्महत्या कायरता है परन्तु उपर्युक्त घटनाएं वीरताके जाज्वल्यमान उदाहरण हैं । इन्हीं उदाहरणों के भीतर समाधिमरणकी घटनाएं भी शामिल हैं । हां दुनिया में प्रत्येक सिद्धान्त और प्रत्येक रिवाजका दुरुपयोग हो सकता है और होता भी है। बंगाल में कुछ दिन पहिले 'तक्रिया' का बहुत दुरुपयोग होता था । अनेक लोग वृद्धा स्त्रोको गंगा किनारे ले जाते थे और उससे कहते थे 'हरि' बोलो अगर उसने 'हरि' बोल दिया तो उसे जीते ही गंगा में बहा देते थे । परन्तु वह हरि नहीं बोलती थी इससे उसे बार बार पानी में डुबा डुबाकर निकालते थे और घबराकर वह हरि बोल जब तक वह हरि न बोले तब तक उसे इसी प्रकार परेशान करते रहते थे जिससे दिया करती थी और वे लोग उसे स्वर्ग पहुंचा देते थे । 'अंतिमक्रिया' का यह कैसा भयानक दुरुपयोग था । फिर भी दुरुपयोगके डरसे अच्छे कामका त्याग नहीं किया जाता, किन्तु यथासाध्य दुरुपयोगको रोकने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं। अपने और परके प्राणत्यागके विषय में निम्न लिखित नियम उपयोगी हैं १२८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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