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वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ
लीन समस्त दर्शनोंकी स्पष्टतथा सयुक्तिक समीक्षा करनेके कारण उनकी प्राप्तमीमांसा इतनो लोकप्रिय हो चुकी थी कि इस राज्यकालमें ८वीं शतीके प्रारम्भसे लेकर आगे इस पर अनेक टीकाएं दक्षिणमें लिखो गयी थीं।
राष्ट्रकूट युगके प्रारम्भमें अकलं कभट्टने इसपर अपनी अष्टशती टीका लिखी थो । श्रवण बेलगोलाके ६७ वें शिलालेखमें अकलंकदेव राजा साहसतुंगसे अपनी महत्ता कहते हुए चित्रित किये गये हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये साहसतुङ्ग दन्तिदुर्ग द्वितीय थे । इस शिलालेखमें बौद्धोंके विजेतारूपमें अकलंक भट्टका वर्णन है। ऐसी भी दंतोक्ति है कि अकलंकभट्ट राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण प्रथमके पुत्र थे । किन्तु इसे ऐतिहासिक सत्य बनानेके लिए अधिक प्रमाणोंकी आवश्यकता है। प्राप्तमीमांसाकी सर्वाङ्गसुन्दर टीकाके रचयिता श्री विद्यानन्द इसके थोड़े समय बाद हुए थे। इनके उल्लेख श्रवणबेलगोलाके शिलालेखों में हैं।
न्याय-शास्त्र--
__इस युगमें जैनतर्कशास्त्रका जो विकास हुश्रा है वह भी साधारण न था ? ८ वीं शतीके उत्तरार्धमें हुए श्रा० मणिक्यनन्दीने ही परीक्षामुख सूत्र' की रचना की थी। नौवीं शतीके पूर्वार्द्ध में इसपर श्रा० प्रभाचन्द्रने अपनी विख्यात 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' टीका लिखी थी । इन्होंने मार्तण्डके अतिरिक्त 'न्यायकुमुदचन्द्र' भी लिखा था। जैन तर्कशास्त्र के दूसरे प्राचार्य जो कि इसी युगमें हुए थे व मल्लवादी थे, जिन्होंने नवसारीमें दिगम्बर जैन मठकी स्थापनाकी थी जिसका अब कोई पता नहीं है १ कर्क स्वर्णवर्ष के सूरतपत्र में इनके शिष्यके शिष्यको ८२१ ई. में दत्त दानका उल्लेख है इन्होंने धर्मोत्तरा"चार्यकी न्यायविन्दु टीकापर टिप्पण लिखे थे जो कि धर्मोत्तर टिप्पण नामसे ख्यात है। बौद्ध ग्रन्थके ऊपर जैनाचार्य द्वारा टीका लिखा जाना राष्ट्रकूटकालके धार्मिक समन्वय तथा सहिष्णुता की भावनाका सर्वथा उचित फल था ।
. अमोघवर्षकी राजसभा तो अनेक विद्वानोंरूपी मालासे सुशोभित थी। यही कारण है कि आगामी अनेक शतियोंमें वह महान् साहित्यिक-प्रश्रयदाताके रूपमें ख्यात था । उसके धर्मगुरू जिनसेनाचार्य हरिवंश पुराणके रचयिता थे, यह ग्रन्थ ७८३ ई० में समाप्त हुअा था। अपनी कृतिकी प्रशस्तिमें उस वर्ष में विद्यमान राजाअोंके नामोंका उल्लेख करके उनने प्राचीन भारतीय इतिहास के शोधक विद्वानों पर बड़ा उपकार किया है वह अपनी कृति आदिपुराणको समाप्त करने तक जीवित नहीं रह सके थे।
१ पीटरसनकी रिपोर्ट सं २,७९। ज० ब० ब्रा० रो. ए० सो० भा० १८ पृ २१३ । २ एपी० कर्ना० भा० २ सं २५४ । ३ भारतीय न्यायका इतिहास पृ० १७९ ४ एपी० इ० भा० २१ ५ भा० न्या० पृ १९४-५१ ६ इ० एण्टी० १९०४ पृ. २७ ।
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