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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ क्योंकि तेरा निवास मेरे हृदयमें है । हे मानिनी ? पुनः यहां अानेकी प्रतीतिके लिए यदि तुझको मुझसे कोई घोर प्रतिज्ञा कराना हो, तो वह भी मैं करनेको तयार हूं।" फिर वनमालाकी इच्छासे लक्ष्मणने शपथ ली कि “यदि मैं पुनः लौटकार यहां न आऊं, तो मुझको रात्रि-भोजनका पाप लगे।" इसप्रकार यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि पं० श्राशाधरजीके सामने हेमचन्द्रका त्रि० श० पु० चरित था और उसीके आधार पर उन्होंने वनमालाकी रात्रि भोजन वाली शपथका उल्लेख किया है। या यह भी संभव हो सकता है कि रामके चरितका प्रतिपादक अन्य कोई संस्कृत या प्राकृत ग्रन्थ उनके सामने रहा हो और उसके अाधारपर पंडितजीने उक्त उल्लेख किया हो। फिर भी पंडितजी की रचना शैलीको देखते हुए तो ऐसा लगता है कि दि० परंपराका और कोई उक्त घटनाका पोषक ग्रन्थ उनके सामने नहीं था, जिसकी पुष्टि उक्त श्लोककी टीकाके 'किल रामायणे एवं श्रूयते' इस पदसे भी होती है। अन्यथा वे उस ग्रन्थका नाम अवश्य देते, क्योंकि प्रकृत ग्रन्थमें अन्यत्र दूसरे ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंके नामोंका उल्लेख उन्होंने स्वयं किया है तथा योगशास्त्रके "श्रुयते ह्यन्यशपथाननादृत्यैव लक्ष्मणः । निशाभोजनशपथं कारितो वनमालया ।” श्लोकसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है। ___ भोजनका प्रेतके द्वारा जूठा किया जाना—दोनों ग्रन्थों के श्लोकोंमें रात्रिभोजनको प्रेतपिशाचादिके द्वारा उच्छिष्ट किये जानेका उल्लेख है, वह भी दि० परंपराके विरुद्ध है। दि० शास्त्रोंमें कहीं भी ऐसी किसी घटनाका उल्लेख नहीं देखनेमें आया जिससे कि उक्त बातकी पुष्टि हो सके । इसके विपरीत श्वे० ग्रन्थों में ऐसी कई घटनाअोंका उल्लेख है जिनमें प्रेत आदिसे भोजनका उच्छिष्ट किया जाना, देवोंका मानुषीके साथ संभोग करना आदि सिद्ध होता है । यहां यह शंका की जा सकती है कि संभव है प्रेतपिशाच आदिसे पं० श्राशाधरजीका अभिप्राय व्यन्तरादि देवोंसे न हो कर किसी मांस भक्षी मनुष्यादिसे हो; सो भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इसी श्लोककी टीकामें पं० जी स्वयं लिखते हैं "तथा प्रेताद्युच्छिष्टमपि प्रेता अधम व्यन्तरा श्रादयो येषां पिशाचराक्षसादीनां तैरुच्छिष्टं स्पर्शादिना अभोज्यतां नीतं" ( अ० ४ श्लोक २५ की टीका )। उक्त उद्धरणसे मेरी बातकी और भी पुष्टि होती है साथ ही इस बात पर भी प्रकाश पड़ता है कि श्वे० शास्त्रों में वर्णित व्यंतरादि देवोंका मनुष्योंके भोजनको खाना, मानुषी स्त्रीके साथ संभोग करना आदि पं० आशाधरजीको भी इष्ट नहीं था, उन्हें यह बात दि० परम्परासे विरुद्ध प्रतीत हुई, अतएव उन्होंने उच्छिष्ट' का अर्थ 'मुहसे खाया' न करके 'स्पर्श आदिके द्वारा अभोज्य किया गया' किया है । १. रामायण पृ० २३६,-अनुवादक कृष्णलाल वर्मा । १. योग०३-४८। सागारध० ४-२५ । ३७२
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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