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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जो कुछ कोई कहता था चुप चाप सुन लेता था।" किन्तु यह ऐसा गुण सिद्ध हुआ कि वर्णीजी सहज ही उस समयके जैन नेताओं तथा गुरु गोपालदासजी, पं. बलदेवदासजी, आदिके विश्वासभाजन बन सके । इतना ही नहीं, इस गुणने वर्णीजीको आत्म-आलोचक बनाया जिसका प्रारम्भ सिमरा भेजे गये जाली पत्रको लिखनेकी भूलको स्वीकार करनेसे हुआ था। तथा हम देखते हैं कि इस अवसरपर की गयी गुरूजीकी भविष्यवाणी "अाजन्म आनन्दसे रहोगे" अक्षरशः सत्य हुई है सच तो यह है कि इसके बाद ही श्राजके न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादका प्रारम्भ हुआ था, क्योंकि इसके बाद दो वर्ष खुरजामें रहकर वर्णी जी ने गवर्नमेंट संस्कृत कालेज बनारसकी प्रथमा तथा न्यायमध्यमा का प्रथम खण्ड पास किया था। "एक बार बन्दे जो कोई...."-खुरजामें रहते समय एक दिन मृत्युका स्वप्न दिखा । वर्णीजी की अटल जैन धर्म श्रद्धाने उन्हें सम्मेदशिखर यात्राके लिए प्रेरित किया। क्या पता जीवन न रहे ? फिर क्या था गर्मी में ही शिखरजीके लिए चल दिये । प्रयाग आकर अक्षयवट देखकर जहां भारतीयोंकी श्रद्धालुताके प्रति आदर हुआ वहीं उनकी अज्ञताको देखकर दया भी आयी। वर्णी जीने देखा अज्ञ श्रद्धालु जनताको गुण्डे पण्डे किस प्रकार ठगते हैं फलतः उनकी वैदिक रीति रिवाजों परसे बची खुची श्रद्धा भी समाप्त हो गयो । शिखरजी पहुंचने पर गिरिराजके दर्शनसे जो उल्लास हुआ वह गर्मी के कारण होने वाली यात्राकी कठिनाईका ख्याल आते ही कम होने लगा। उनके मन में पाया “यदि हमारी बन्दना नहीं हुई तो अधम पुरुषोंकी श्रेणीमें गिना जाऊगा। किन्तु उनकी अटल श्रद्धा फिर सहायक हुई और वे सानन्द यात्रासे लौट कर इस लोकापवाद-भीरुतासे सहज ही बच सके। वर्णीजी परिक्रमाको जाते हैं और करके लौटते हैं, पर इस यात्रा में जो एक साधारण सी घटना हुई वह उनके अन्तरंगको ‘करतलामलक' कर देती है । वे मार्ग भूलते हैं और प्याससे व्याकुल हो उठते हैं । मृत्युके भय और जीवनके मोहके बीच झूलते हुए कहते हैं “यद्यपि निरीह वृत्तिसे ही भगवानका स्मरण करना श्रेयोमार्गका साधक है। हमें पानीके लिए भक्ति करना उचित न था। परन्तु क्या करें ? उस समय तो हमें पानीकी प्राप्ति मुक्तिसे भी अधिक भान हो रही थी। ........तृषित हो प्राण त्यागू?........जन्मसे ही अकिञ्चत्कर हूं। आज निःसहाय हो पानीके विना प्राण गमाता हूँ। हे प्रभो एक लोटा पानी मिल जाय यही विनय है ।........ भाग्यमें जो बदा वही होगा फिर भी हे प्रभो ? आपके निमित्तने क्या उपकार किया ?" वर्णोजी जब इन संकल्प विकल्पोंमें डूब और उतरा रहे थे उसी समय पानी मिल जाता है। पूर्व पुण्योदयसे प्राप्त इस घटनाने उनमें जो श्रद्धा उत्पन्नकी उसकी प्रशंसा करते हुए वे स्वयं कहते हैं "उस दिनसे धर्ममें ऐसी श्रद्धा हो गयी जो कि बड़े बड़े उपदेशों और शास्त्रोंसे भी बहुत ही श्रमसाध्य है।" "काय वा साघयामि शरीरं वा पातयामि" ___सम्मेदशिखरसे सिमरा वापस गये। टीकमगढ़ रहकर ही अध्ययन चालू रखनेका प्रयत्न किया किन्तु अध्यापक दुलार झासे पशुबलिको ले कर विवाद हो गया और अहिंसाके पुजारी वर्णीजीने तय किया 'मूर्ख रहना अच्छा किन्तु हिंसाको पुष्ट करने वाले अध्यापकसे विद्यार्जन करना अच्छा नहीं।" दश
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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