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________________ वर्णीजी : जीवन-रेखा द्वितीय यात्रा-माताने सोचा जगकी उपेक्षाने शायद आंखें खोल दी हैं और अब यह घर रह कर काम करेगा। पर अन्तरग में प्रज्वलित ज्ञानतृषाकी शान्ति कहां थी ? तीन दिन बाद फिर बमरानेको चल दिये और वहांसे रेशन्दीगिरकी यात्राको पैदल ही चल दिये । वहांसे यात्रा करके कुण्डलपुर गये । इस प्रकार तीर्थयात्रासे परिणाम तो विशुद्ध होते थे पर ज्ञानवृद्धि न थी। बहुत सोचकर भी युवक वर्णी दिग्भ्रान्तसे चले जा रहे थे । रामटेक, मुक्तागिरि, आदि क्षेत्रों की यात्रा की किन्तु मन्दिरोंकी व्यवस्था और स्वच्छताने रह रह कर एक ही प्रश्नको पुष्ट किया-'क्या यहां आध्यात्मिक लाभ (ज्ञान चर्चा) की व्यवस्था नहीं की जा सकती १ उसके विना इस सबका पूर्ण फल कहां ?' प्रतीत होता है कि मार्गकी कठिनाइयां पूर्व बद्ध ज्ञानवरणीको समाप्त करनेके लिए पर्याप्त न थों फलतः खुजलीने शरीर पर आक्रमण किया । और बढ़ते शारीरिक कष्ट तथा घटते हुए पैसेने कुछ क्षणों के लिए विवेक पर भी पर्दा डाल दिया। फलतः पैसा बढ़ानेकी इच्छासे वेतूलमें ताशके पत्ते पर दाव लगाया और अवशेष तीन रुपया भी खो दिये। फिर क्या था शारीरिक कष्ट चरम सीमा पर पहुंच गया, उदर भरण के लिए मिट्टी खोदनेका काम भी करना पड़ा । किन्तु इस संयं गने उन्हें भूलकर भी अकार्य करनेसे विरत कर दिया । ___“ज्ञानीके छनमें त्रिगुप्तिसे सहज टरेते" -गजपंथमें आरवीके सेठसे भेंट हुई और बम्बई पहुंचे । बस यहांसे विद्वान वर्णीका जीवन प्रारम्भ होता है। खुरजाके श्रीगुरुदयालसिंहसे भेंट हुई उन्होंने इनके स्थानादिकी व्यवस्था जमवा दी । इन दिनों वर्णी जी कापियां बेच कर श्राजीविका करते थे तथा पं० जीवारामसे कातन्त्र व्याकरण तथा पं० बाकलीवालसे रत्नकरण्ड पढ़ते थे । संयोगवश इसी समय श्री माणिकचन्द्र दि० जैन परीक्षालयकी स्थापना हुई और परीक्षामें ससम्मान उत्तीर्ण होनेके कारण वर्णीजी को पं० गोपालदास जी ने छात्रवृत्ति दिला कर जयपुर भेज दिया। यहां आने पर अध्ययनका क्रम और व्यवस्थित हो गया और वे सर्वार्थसिद्धि, आदि ग्रन्थोंको पढ़ सके । जिस समय कातन्त्रकी परीक्षा दे रहे थे उसी समय पत्नीकी मृत्युका संवाद मिला। वर्णी जी ने इसे भी अपने भावी जीवनका पूर्व चिन्ह समझा और शान्त भावसे निवृत्ति मार्गको अपनानेका ही संकल्प किया। जैन समाजमें भी सांस्कृतिक जागरण हो रहा था फलतः मथुरामें महा विद्यालयकी स्थापना हुई और वर्तमान में प्राच्य शिक्षित जैन समाजके महागुरु पं० गोपालदासजी वरैयाने वर्णीजीको मथुरा बुला लिया। यहां आनेसे पं० पन्नालालजी वाकलीवालका समागम पुनः प्राप्त करके वर्णी जीने 'अपने प्राणों को ही पाया था । अध्ययनका क्रम अब व्यवस्थित हो रहा था, तथा पूर्ण शिक्षा प्राप्त करनेका संकल्प दृढ़तर । फलतः गुरूभक्तिसे प्रेरित होकर वह कार्य भी कर देते थे जो नहीं करना चाहिये था । यही कारण था कि पं० ठाकुरप्रसादजी के लिए चौदशके दिन बाजारसे आलू-वेंगनकी तरकारी लानेसे इंकार भी न कर सके तथा अत्यन्त भयभीत भी हुए। लक्ष्य के प्रति स्थिरता तथा भीरूताके विचित्र समन्वयका यह अनूठा निदर्शन था। वर्णीजी अपने विषयमें स्वयं एकाधिक बार यह कह चुके हैं कि मेरी प्रकृति बहुत डरपोक थी, नौ
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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