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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ही संगति करनी चाहिये शेष लोगोंसे बचना चाहिये । तथापि भायजी की बात न टाल सके और माताजी को चले पानेके लिए निवदेनात्मक पत्र डाल दिया, किन्तु इसमें स्पष्ट संकेत था कि यदि आपने जिनधर्म धारण न किया तो आप दोनोंसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा।' पर कौन जानता था कि कुछ ही दिनमें वे माता मिल जाने वाली हैं जो युवक गणेशको शीघ्र ही पंडित गणेशप्रसाद वर्णांके रूपमें जैन समाज को दें गी। __ जताराके पासके सिमरा गांवमें एक क्षुल्लक जी विराजमान थे फलतः अपने साथियोंके कहने पर वर्णी जी भी वहां गये । शास्त्र वांचा तथा भोजन करने सम्पन्न विधवा सिधैन चिरोंजाबाई जीके यहां गये। भोजनके समय वर्णीजीका संकोच देखकर निसन्तान विधवाका मातृत्व उभर आया और मनसा उन्होंने इन्हें अपना पुत्र उसी क्षुणसे मान लिया। किन्तु वर्णीजी श्रात्म रहस्य जानने के लिए उतावले थे । सोचा क्षुल्लक जी अधिक सहायक हो सकें गे, पर निकट सम्पर्कने श्राशाको निर्मूल कर दिया। किन्हीं लोगोंको स्वाध्याय कराते हुए आजीविका करनेकी सम्मति दी । इस प्रकार जब वर्णाजी अपनी धुनमें मस्त थे, उन्हें क्या पता था कि उनकी धर्म-माताको यह सब नागवार गुजर रहा है। अन्तमें 'बेरा घरे चलो"कह कर वे उन्हें अपने घर ले गयीं । उनको घर रखा और पयूषण पर्व बाद जयपुर जा कर जैन शास्त्रोंके अध्ययनकी सम्मति दी। फलतः पर्व समाप्त होते ही जयपुरको चल दिये । इनके चले जाने के बाद मातापत्नी आयीं और इन्हे न पाकर भग्न-मनोरथ हो कर फिर महावरा को लौट गयीं। किन्तु अभी समय नहीं आया था मार्गमें गवालियर ठहरे तो वहां पर चोरी हो गयी फलतः पासमें कुछ न रहा । वर्णी जीने यद्यपि जयपुर यात्राका विचार छोड़ दिया तथापि जिस प्रकार कष्ट सहते हुए जतारा लौटे और लजा संकोचवश धर्ममाताके पास न गये, उसने ही बाईजी (सिंधैन चिरोंजाबाईजी) को आभास दे दिया था कि यह ज्ञान प्राप्त किये विना रुकने वाले नहीं हैं । कुछ समय बाद इनके मित्र खुरई धर्म चर्चा सुनने के लिए निकले उनके श्राग्रहसे यह भी चल दिये । यद्यपि टीकमगढ़ में ही गोटीराम भायजी की उपेक्षाने इन्हें शास्त्रज्ञ बननेके लिए कृत-संकल्प बना दिया था तथापि यह श्रेय तो खुरईको ही मिलना था। जहां खुरई के जिनमन्दिर, श्रावक, शास्त्र प्रवचन, श्रादिने वर्णोजी को आकृष्ट किया था वहीं खुरईकी शास्त्र सभामें प्राप्त 'यह क्रियातो हर धर्म वाले कर सकते हैं....तुमने धर्मका मर्म नहीं समझा। आजकल न तो मनुष्य कुछ समझे और न जाने केवल खान पानके लोभसे जैनी हो जाते है । तुमने बड़ी भूल की जो जैनी हो गये।" व्यङ्ग तथा तिरस्कार पूर्ण समाधानने वर्णीजीके सुप्त आत्मा को जगा दिया । यद्यपि अंतंरगमें कड़वाहट थी तथापि ऊपरसे "उस दिन ही आपके दर्शन करुगा जिस दिन धर्मका मार्मिक स्वरूप आपके समक्ष रख कर आपको संतुष्ट कर सकूगा।" मिट उत्तर देकर अध्ययनका अटल संकल्प कर लिया था । तथापि तुरन्त कोई मार्ग न सूझनेके कारण उस समय वे पैदल ही मड़ावराको चल दिये और तीन दिन बाद रातमें घर पहुंचे। पाठ
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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