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वर्णीजी : जीवन रेखा पर जिसकी जीवन-साध ही पांडित्य थी वह कैसे पढ़ना छोड़ कर शान्त बैठता ? फलतः धर्ममाता से आज्ञा लेकर हरिपुर ( इलाहाबाद ) ० ठाकुरप्रसाद के यहां चले आये | अध्ययन सुचारु रूप से चल रहा था किन्तु 'संगात् संजायते दोषः ।' एक दिन साथी के साथ भग पी ली । नशा हुआ, पंडितजी ने रात्रिमें खटाई खानेको कहा, पर आतं पाल्यं प्रयत्नः फलतः निशिभोजन त्याग व्रतको निभाने के लिए नशे में भी जागरूक रहे । 'भंग खानेको जैनी न थे' सुन कर गुरूजीके पैरों में गिर पड़े और अपने अपराध के लिए पश्चाताप किया तथा अपने जैनत्वको ऐसा दृढ़ किया कि 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैन मन्दिरम् के गढ़ काशी में भी विजय पायी ।
वर्णीजी ऊंची शिक्षा के लिए काशी पहुंचे । अन्य विद्यार्थियों के समान पोथी लेकर पं० जीवनाथ मिश्र के सामने उपस्थित हुए । नाम कुल घर्म पूछा गया । प्रकृत्या भीरू पं० गणेश प्रसादने साहसके साथ कह दिया 'मैं ब्राह्मण नहीं हूं ।" पंडित आग बबूला हो गया अब्राह्मण और उसपर भी वेदनिन्दक ' कदापि नहीं, मेरे यहां त्रिकाल में नहीं पढ़ सकता। वर्णीजी भी शमीतरू हैं । उनके भीतर छिपा नैयायिक जाग उठा और बोले “ईश्वरेच्छा विना कार्य नहीं होता, तब क्या हम इश्वरकी इच्छा के विना ही हो गये ? नहीं हुए; तब आप जाकर ईश्वरसे झगड़ा करो।" विचारे काशी के पंडितके लिए ही यह नूतन अनुभव न था अपितु वर्णों जीके अन्तरंग में भी नूतन प्रयोगका संकल्प उदित हो चुका था । नागरिकता एवं सभ्यताकी रंग रंगमें भिदी साम्प्रदायिकता ने क्षण भरके लिए वर्णीजीको निराश कर दिया । वे कोठीमें बैठ कर रुदन करने लगे और सो गये । स्वप्न देखा, बाबा भागीरथीजीको बुलाओ और श्रुतपञ्चमीको काशी में पाठशालाका मुहूर्त करो । फलतः यह प्रयत्न प्रारम्भ किया और दूसरे अध्यापक की खोज में लग गये । तथा बड़ी कठिनाइयोंको पार करते हुए पंडित अम्बादास शास्त्रीके शिष्यत्वको प्राप्त कर सके ।
इस समय तक परम तपस्वी बाबा भागीरथ जी आ चुके थे। संयोगवश अग्रवाल सभा में वर्णोंजी चार मिनट बोले जिससे काशी के लोग प्रभावित हुए । विद्यालय के प्रयत्नकी चर्चा हुई तथा पं० झम्मनलालजी सा० से एक रुपया प्रथम सहायता मिली। वर्णोजी तथा बाबाजी निरुत्साह न हुए अपितु चौंसठ कार्ड लेकर समाजके विशेष व्यक्तियोंको लिख दिये । विशुद्ध परिणामोंसे कृत प्रयत्न सफल हुआ । स्व० बाबू देवकुमार रईश आरा, सेठ माणिकचन्द जवेरी बम्बई, बाबू छेदीलाल रईश बनारस आदिने प्रयत्नकी प्रशंसा की और सहायताका वचन दिया । यद्यपि निरुत्साहक उत्तर भी आये थे तथापि ज्यों ही सौ रूपया मासिक सहायताका वचन मिला त्यों ही पं० पन्नालालजी बाकलीवालको बुला लिया । पं० बादाestat - अध्यापक तथा पं० वंशीधरजी इन्दौर, पं० गोविन्दरायजी तथा अपने आपको आदि छात्र करके वर्णीजीने काशीके श्री स्याद्वाद दिगम्बर जैन विद्यालयका प्रारम्भ किया जिसने जैन समाजकी सांस्कृतिक जाग्रति के लिए सबसे उत्तम और अधिक कार्य किया है । कह सकते हैं कि स्याद्वाद ग्यारह