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________________ वर्णो-अभिनन्दन-प्रन्थ दि. जैन विद्यालयने जैन समाजको वही सेवा कि है जो श्री सय्यद अहमदके अलीगढ़ विश्वविद्यालयने मुसलमानोंकी, पूज्य मालवीयजीके काशी विश्वविद्यालयने वैदिकोंकी तथा पूज्य गांधीजीके विद्यापीठोंने पूरे भारतकी की है। प्रथम दो शिक्षा संस्थानोंकी अपेक्षा स्याद्वाद विद्यालयकी यह विशेषता रही है कि इसने कभी भी जैन साम्प्रदायिकता को उठने तक नहीं दिया है। माना कि उपरि लिखित सजनोंके सिवा स्याद्वाद विद्यालयको उन्नतिके शिखर पर ले जानेमें परमपूज्य बाबा भागीरथ जी वर्णी, श्री दीपचन्दजी वर्णी, स्व०७० ज्ञानानन्दजी, वावा शीतलप्रसादजी,श्री निर्मलकुमार रईस(बारा) वर्तमान मंत्री बाबू सुमतिलालजी, प्रधानाध्यापक पं० कैलाशचन्द्रजी, सुपरि०बाबू पन्नालाल चौधरी, आदिका हाथ प्रधान रूपसे रहा है, तथापि यह एक संस्था वर्णीजीको अमर करनेके लिए पर्याप्त है, क्यों कि वे इसके संस्थापक ही नहीं हैं, अपितु आज जैन समाजकी विविध संस्थानोंके पोषक हो कर भी उन्हें सदैव इसके स्थायित्वकी चिन्ता रहती है । ऐसा लगता है कि वे अपनी इस मातृ-पुत्रि संस्थाको क्षण भर नहीं भूलते हैं। इस संस्थाके आदि प्रधानाध्यापक पं० अम्बादास शास्त्रीको आधुनिक जैन नैयायिकोंका कुलगुरु कहना ही उपयुक्त होगा । आश्चर्य तो यह है कि इस महान संस्थाका प्रारम्भ कितना साधारण था । वटबीजसे भी लघुतर, क्यों कि सबसे पहिले श्री मूलचन्द्र सर्राफ बरुआसागरने दो हजार गजरशाही काया सहायतामें दिये थे । किन्तु अाधुनिक युगों जैनत्वके स्थितिकारक उक्त महाशयोंके सत्प्रयत्नका ही यह फल है कि इस विद्यालयने विविध विषयोंके विशषेज्ञ अनेक विद्वान जैन समाज तथा देशको दिये हैं । स्याद्वाद विद्यालयके विद्यार्थी रहते हुए वर्णीजीने अद्भुत आत्मशोधन किया था यह निम्न घटनाओंसे स्पस्ट हो जाता हैरामनगरकी सुप्रसिद्ध रामलीला देखने वर्णाजी गृहपतिको अनुमति विना चले गये । लौटनेपर विचार हुआ। जवानीका जोश, वर्णीजी भी कुछ कह गये । कठोर विनयी (डिसिप्लेनरी) बावाजीने इन्हें पृथक कर दिया। विदायीकी सभा हुई । प्रकृत्या विनम्र वर्णीजीको आत्मबोध हुआ। उनके पश्चाताप तथा दृढ़तापूर्ण भाषणने बाबाजीको पिघला दिया। बाबाजीने अनुभव किया कि सर्व साधारण उनके समान अकम्प विनयी नहीं हो सकता। फलतः अपने श्रादर्श तथा लोक शक्तिका विचार करके उन्होंने अधिष्ठातृत्व को त्याग दिया । सबसे रोचक बात तो यह थी कि दूसरेके द्वारा लादे गये दण्डके विरुद्ध खड़े होने वाले वींजीने एक मास पर्यन्त मधुर भोजनका स्वयमेव त्याग कर दिया। यह आत्मदण्ड वर्णीजीके लिए साधारण नहीं था क्योंकि वे कहा करते हैं कि जब ब्रह्मचारी उमरावसिंहने अपना नाम ज्ञानानन्द रक्खा तो गोष्ठीमें चर्चा हुई और वर्णीजीने कहा 'भैया मैं यदि अपनो नाम बदलों तो भोजनानन्द' रखों काये कि वो अधिक सार्थक होगा।' वर्णीजी राजर्षि हैं, कहां कौन उत्तम भोज्य पदार्थ होता या बनता है यह सब जितना वे जानते है उससे भी बढ़कर उनकी इसके प्रति उदासीनता है। बारह
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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