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________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ अनुलेपन आधुनिक पाउडर क्रीम, साबुन, आदि ), शय्या, श्रासन ( मोटर, आदि), द्विपद ( मनुष्य दासी, दास ) पशु तथा भाण्ड ( सब प्रकारके बर्तन, आदि) के स्थूल भेदसे दश प्रकारके पारग्रहको उतना ही रखे जितना उसके लिए कार्यकारी' हो अर्थात् जिसके न होनेसे जीवन यात्राके रुक जानेकी आशंका हो। लक्षणोंके भाष्य श्राचार्य उमास्वामिके 'तत्त्वार्थ सूत्र' को मानव जीवनके सकल मनोरथोंका पूरक बना देनेका श्रेय पूज्यपाद स्वामीको है । परिग्रहके लक्षण का सूत्र तथा उसके विरतिपरक भाष्यको लीजिये. 'मूर्छा क्या है? गाय, भैंस, मणि, मुक्ता, चेतन-जड़ आदि बाह्य तथा मोह जन्य रागादि परिणाम रूप अन्तरंग उपाधियोंके अर्जन, संरक्षणादि स्वरूप संस्कारका न छूटना ही मूछा है । तब तो आध्यात्मिक ही परिग्रह या मूर्छा हो गी वाह्य छूट जायगा ? सत्य है, प्रधान होनेके कारण अन्तरंग परिग्रह ही परिग्रह है । क्यों कि धन-धान्यादि न होनेपर भी यह मेरा है, इस संकल्प मात्रसे जीव परिग्रही हो जाता है। अथ बाह्य परिग्रह नहीं ही होता है ? होता ही है 'ममेदम्' मूर्छाका कारण होने से । सम्यकज्ञानादिको भी रागादिके समान परिग्रहत्व आ जाय गा ? नहीं, 'प्रमत्तयोगात्' ही मूर्छा परिग्रह है । समयक दर्शन-ज्ञानचारित्रवान् अप्रमत्त होता है, उसे मोह नहीं होता अतः वह परिग्रही नहीं होता। ये आत्माके ही रूप हैं, रागादि कर्मकृत हैं । अतएव इनमें संकल्प होने से परिग्रह होता है और उसी से समस्त दोष होते हैं । 'ममेदम्' संकल्प होते ही संरक्षणादि अनिवार्य हो जाते हैं उनके समारम्भ में हिंसा अनिवार्य है । इसके लिए झूठ भी बोलता है। चोरी ( चुङ्गी, श्रायकर आदि से प्रारम्भ होकर चोर बाजारी आदि में परिणत होती है) भी करता है । तथा व्यभिचार भी करता कराता है । इस प्रकार यह भाष्य परिग्रहको सब पापों की खान तथा कायिक या बाह्य परिग्रहको ही पाप नहीं बताता अपितु उसके मनोवैज्ञानिक रूपको भी 'हाथका कंगन' कर देता है। श्राजके सर्वोत्तम अर्थशास्त्री मार्क्सवादो भी केवल 'सम्पत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व'को ही हेय समझते हैं किन्तु जैनधर्म कहता है कि सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण या समाजीकरण भी पर्याप्त नहीं है। सबसे घातक तथा निकष्ट सम्पत्ति तो यह है जो कहता है 'रूस मेरा, मार्क्सवाद मेरा, श्रादि' । अर्थात् सम्पत्तिका तथोक्त समान विभाजन (प्रत्येक से उसकी सामर्थ्य भर काम लेना और उसकी १. कार्तिकेयानु प्रेक्षा गा. ३४० की व्याख्या-''उपयोग ज्ञात्वा-कार्यकारित्वं परिज्ञाय परिग्रहाणां संख्यां करोति यः स पञ्चमाणुव्रतधारी स्यात्" ( अकलक सार० भवनकी हस्तलिखित प्रति पृ. १४९) २. तत्त्वार्थ सबकी उनके द्वारा रचित टीका यथार्थ नामा "सर्वार्थसिदिध" है। ३. सवार्थसिद्धि पृ० २०७-८। (कल्लप्पा, भरमप्पा निटवेके जैन मुद्रणालय कोल्हापुर का प्रकाशन शब्कान्द १८३९.) १८०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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