SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति मूल जैनसम्प्रदायके सिवा उत्तर कालीन सम्प्रदायोंमें भी पूर्ण मान्यता है । इनके अनुसार मूर्छा (अर्थात् गाय, भैंस, मणि, मुक्ता, आदि बाह्य तथा राग, द्वेष, आदि अन्तरंग पर-पदार्थों के संरक्षण रूप स्वभाव) ही परिग्रह है ' । 'मूर्छा' शब्दका प्रयोग ही उस समयके समाजकी मानसिक स्थितिका सूचक है। सूत्र ग्रन्थ होनेके कारण इस लक्षणमें वह विशदता नहीं है जो श्रा० कुन्दकुन्दके संकेतमें है। विशेषकर उत वैज्ञानिक सावधानीका तो श्राभास भी नहीं है जो कि स्वामी कार्तिकेयके उपदेशका वैशिष्ठय है। उनकी दृष्टिमें आत्मतृप्त होकर संतोष अमृत द्वारा लोभका विनाश, संसारकी विनाश शीलताके कारण तृष्णा नागिन का हनन तथा धन, धान्य, सुवर्ण, क्षेत्र, श्रादिका परिमाण मात्र परिग्रइ परिमाण नहीं है, अपितु परिमित परिग्रही होनेके लिए उक्त त्यागके पहिले कार्यकारी उपयोग-अावश्यकता को जानना आवश्यक है। अर्थात् यथेच्छ परिमाण करना अपरिग्रह नहीं है अपितु शरीर तथा श्रात्माका प्रशस्त सम्बन्ध बनाये रखने के लिए अनिवार्य आवश्यकता अनुसार परिमाण करना ही परिग्रहपरिमाण व्रत हैं । स्वामी समन्तभद्रकी क्रान्ति-- जब हम स्याद्वादावतार स्वामी समन्तभद्रको देखते हैं तो स्वामी कार्तिकेयके संकेतको भाष्य रूपमें पाते हैं । वे धन, धान्य, आदि परिग्रहका परिमाण करके उससे अधिकमें निस्पृह रहे कहकर ही परिग्रह विरतिका उपदेश समाप्त नहीं करते अपितु 'इच्छा परिमाण' नाम देकर व्रतके साध्यको मुखोक्त कर देते हैं । अर्थात् यथेच्छ परिमाण कर लेना व्रत नहीं है अपितु इच्छाका निरोध भी आवश्यक है । आचार्यको मानव मनःस्थिति 'लाभाल्लोभः प्रपजायते' का स्पष्ट ज्ञान था। वे जानते थे कि जीवनमें सहस्र रुपया कमानेकी योग्यता न रखनेवाला भी लाखोंका नियम करेगा। 'येन केन प्रकारेण सम्पत्ति कमानेमें लीन बुद्धिमान पुरुष करोड़ों, अरवोंका नियम करेगा, खूब दान देकर त्यागमूर्ति भी बनेगा और स्वयं भी व्रतके शव ( करोड़ोंका परिमाण) को लिए हुए व्रती तथा नेता बनेगा । अपने जीवनके अनुभवों के आधार परभी उन्हें यह ज्ञान था कि मनुष्य ग्रहीत नियमके अात्माको निकालकर भी किस कुशलतासे वाह्य रूपको बनाये रखता है फलतः उन्होंने “इच्छा परिमाण' से स्वामी कार्तिकेयके कार्यकारी मात्र वस्तुओं का परिमाण अधिक अथवा विलास साधक वस्तु परिमाण नहीं, पर स्पष्ट जोर दिया । फलतः स्पष्ट है कि जैन साहित्यके प्रथम युगके प्राचार्योंने विश्व समाजमें सम्पत्तिको लेकर होनेवाली अव्यवस्थाअोंको रोकने के लिए यही व्यवस्था की थी कि मनुष्य क्षेत्र, धन, धान्य, गृह, कुप्य (सूती, ऊनी, रेशमी वस्त्र, माल्य १. "मूर्छा परिग्रहः” तत्त्वार्थसूत्र, १,७ । २. 'स्वामी कार्तिकेयानुपेक्षा "उपओग जाणित्ता अण्णुव्वयं पचमं तस्स" गा० ३३९-४० ३. “धन धान्यांदिग्रन्थ परिमायि ततोधिकेषु निःस्पृहता । परिमित परिग्रहः स्यादिच्छा परिमाण नामपि ॥" रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३१५ ' ४. रत्नखण्ड ३, १५ की व्याख्या पृ. ४६ । (मा. ग्र. मा.) १७९
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy