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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अन्य पट्ट इसी प्रकारके हैं । उनपर कोहिय आदि श्वेताम्बरीय गणों विषयक लेख भी अङ्कित हैं; स्पष्ट है कि उनको श्वेताम्बर संघके पूर्वाचार्योंने प्रतिष्ठापित कराया था। सारांश यह कि मुनिवेष, स्त्रीमुक्ति, आदि बातोंको लेकर निर्ग्रन्थ संघ दो भागोंमें विभक्त हो गया। तथा यापनीयसंघकी स्थापना इन दोनां संघोंके एकीकरणके लिए की गयी थी । कलिङ्ग सम्राट् ऐल खारवेलने इससे बहुत पहले सब ही प्रकारके निर्ग्रन्थ श्रमणोंका सम्मेलन कुमारी पर्वतपर बुलाया और उसमें द्वादशाङ्ग वाणीके उद्धार द्वारा संघमें ऐक्य स्थापनाका उद्योग किया, दुर्भाग्यवश वह भी असफल रहे । मौर्योत्तर काल मौर्योंके पश्चात् शुङ्गवंश और आन्ध्रवंशके ब्राह्मण धर्मानुयायी शासकोंने भारतके सार्वभौम सम्राट बननेका उद्योग किया । उनके द्वारा वैदिक धर्म की विशेष उन्नति हुई। जैनशासन-सूर्य यहींसे अवनतिरूपी राहुसे ग्रस्त होने लगा। फिर भी जैनाचार्योने भ० महावीरके आदर्शको जीवित रखने में कुछ उठा न रखा । उस समय भारतमें जैनोंके मुख्य केन्द्र कलिङ्ग, उज्जैनी, मथुरा, गिरिनगर और दक्षिणभारतके कई नरार थे । कलिङ्ग और दक्षिण भारतमें प्राचीन निर्ग्रन्थ ( दिगम्बर ) संघका एकाधिपत्य था । उज्जैन, मथुरा और गिरिनगरमें दिगम्बरोंके साथ श्वेतपट संघका भी पर्याप्त प्रभाव था। बौद्धग्रन्थ 'दाठावंश' से प्रगट है कि ईसाकी ४ थी-५ वीं शतियोंमें दिगम्बर जैनी राजमान्य थे। स्वयं कलिङ्ग नरेश जिनके उपासक थे । चीनी यात्री हुएनसांगके समय जैनधर्म यद्यपि राजधर्म नहीं रहा परंतु अंग-बंग और कलिंगकी जनता उसकी अनन्य उपासक थी। उज्जैनमें जैनाचार्योंने सम्राट विक्रमादित्यको जैनधर्ममें दीक्षित किया था। उसके उपरांत उज्जैनका शासकवर्ग मध्यकालतक किसी न किसी रूपसे जैनधर्मसे प्रभावित रहा। दिग० जैन परम्पराके प्राचार्योंका केन्द्र होनेका सौभाग्य उज्जैनको मुस्लिम कालतक प्राप्त रहा । मथुरा जब विदेशी-शक और हूण-शासकोंके अधिकारमें था तब शकवंशके राजा मनेन्द्रर, अजय, रुद्रसिंह और नाहपान भी जैनधर्मसे विशेष प्रभावित हुए थे। निर्ग्रन्थ (दिगम्बर ) और श्वेतपट संघके प्राचार्योंने इन विदेशियोंसे घृणा नहीं की; कंकाली टीलासे उपलब्ध परातत्व इस बातका साक्षी है कि उस समय अनेक यवन ( Greek ) पार्थीय ( Parthians ) एवं शकलोग जैनधर्म में दीक्षित हुए थे । गंधी, माली, गणिका, नट, आदि साधारण स्थितिके लोगोंके लिए भी जैनसंघके द्वार खुले हुए थे-वे मुनियोंको दान देते थे, और जिनपूजाके लिए जिनेन्द्र प्रतिमाएं और मंदिर निर्माण कराते थे। मथुरा वैष्णव सम्प्रदायका मुख्य केन्द्र था । सन्तान प्रदायक देवता नैगमेष देवकी पूजा करते थे । जब ये वैष्णव जैनी हुए, तो नैगमेषकी मान्यता भी जैनसंघमें प्रचलित हो गयी-श्वेताम्बर सम्प्रदायने इसको विशेष महत्त्व दिया। दिगम्बरों में इसका एक उल्लेख 'हरिवंशपुराण' में मिलता है। गिरिनगर निर्ग्रन्थ संघका मुख्य केन्द्र रहा–प्राचीन कालमें श्रोताम्बर संध यहां सफल न हुआ। अतः अपना केन्द्र वल्लभीको बनाया और वल्लभी राजवंशके आश्रयसे उसका आधिपत्य सारे गुजरातपर २६८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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