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________________ साईद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासने था । श्रीभद्रबाहु-संघके दक्षिण भारतमें पहुंचनेसे धर्ममें नूतन जागृति अवश्य श्रायी थी। किन्तु इस घटनाका कुपरिणाम जैनसंघकी एकताका विनाश था । श्रुतकेवली भद्रबाहु तक दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनी प्रायः एक थे और उनके गुरु भी प्रायः एक थे, परंतु भद्रबाहुके बाद ही दोनों सम्प्रदायोंकी अपनी अपनी मान्यताएं तथा गुरु-परम्पराएं हो गयीं। उसके पश्चात् लगभग ईसाकी छठी शतीतक मूल मार्ग निर्ग्रन्थ नामसे प्रसिद्ध रहा और उनका संघ 'निर्ग्रन्थ संघ' कहलाता रहा । किन्तु स्थूलभद्रादिके साथ जो श्राचार्य व मुनि उत्तर भारतमें रह गये थे, उन्होंने दुष्कालके प्रभावानुसार वस्त्र, पात्रादि ग्रहण कर लिये थे। उन्होंने जिनागमकी वाचना और परम्परा निर्धारित करनेके लिए एक संघ भी बुलाया था; परन्तु उसमें भद्रबाहु स्वामी सम्मिलित नहीं हुए थे । उस समय जिनकल्प और स्थविरकल्प रूप श्रमण लिङ्गकी कल्पना की गयी । श्रीहरिषेणने लिखा है कि "जिन मुनियोंने गुरुके वचनोंको इष्ट नहीं माना, उन्होंने जिनकल्प और स्थिविर कल्प ये दो भेद ही कर डाले । अशक्त, कातर और परमार्थको नहीं जाननेवाले उन साधुअोंने अर्धफालक ( अाधा वस्त्र ) रखनेवाला मत चालू किया।" बादमें इसी अर्द्धफालक मतसे श्वेतपट ( श्वेताम्बर ) सम्प्रदायकी उत्पत्ति वलभी नगरमें राजाज्ञासे हुई । राजाने स्पष्ट कहा कि 'या तो आप लोग अर्धफालक त्यागकर पूर्ण निर्ग्रन्थ हो जाइये और यदि निर्ग्रन्थता धारण करनेकी शक्ति नहीं है तो अर्धकालकी विडम्बनाको त्यागकर सीधे सादे वस्त्रोंको पहन लीजिये ।' तभीसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई । इसी प्रकारका कथन भ० रत्ननन्दिकृत ‘भद्रबाहुचरित्र' में भी मिलता है । प्राचीन निर्ग्रन्थवेशके प्रतिपालक श्राचार्योंने चाहा कि जैनसंघमें फूट न पड़े-स्थूलभद्राचार्यने प्रायश्चित लेकर दिगम्बर वेशको धारण किया; परन्तु उनके शिष्यगण न माने । प्रारम्भमें नग्नताके प्रति एकदम बगावत न हो सकी फलतः मध्यममार्ग ग्रहण किया। वे नग्न रहे; परन्तु शीतनिवारण और चर्याके समय लज्जानिवारणके लिए खंड-वस्त्र पासमें रखने लगे अर्थात् वस्त्र रखते हुए भी नग्न रहे । श्राचेलक्य मूलगुणकी सर्वथा विराधना उन्होंने नहीं की। जैसा कि कंकालीटीला मथुरासे प्राप्त तथा ई० प्रथम द्वितीय शती तकके बिल्कुल नग्न श्रमणोंके चित्रणसे सिद्ध है; परन्तु लज्जा निवारणके लिए उनके हाथकी कलायीपर वस्त्रका टुकड़ा पड़ा हुआ है । कण्ह श्रमणका पट्ट एवं १. संक्षिप्त जैन इतिहास, भा० ३ खंड १ पृ. ६०-६६ २. "जैन सिद्धांत भास्कर"-भा० १० कि० तथा भा. ११ कि० १ । ३, यदि नियन्थतारूपं ग्रहयतुं नैव शक्नुथ । ततोऽर्धफलकं हित्वा खविंडम्बनकारणम् । ___ ऋजुवस्त्रेण चाच्छाद्य स्वशरीर तपस्विनः । तिउत प्रतिचेतस्का मद्वाक्येन महीतले ॥' ४. बौद्ध स्तूप (Vodha Stupa) में वस्त्रधारी व नग्न श्रमण चित्रित हैं। (....a naked ascetic, who ___as usual, has a piece of cloth hanging over his right arm.-Dr. Buhler) । प्लेट नं० १७ में कण्ह श्रमण इसी रूपमें चित्रित हैं, जिनका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमें है । प्लेट नं०४ में नैगमेषको मूर्तिके पास एक ऐसे ही अद्ध फालकीय श्रमण चित्रित हैं। डा. अग्रवालने एक अन्य पाषाण पाटमें ऐसे ही एक श्रामणका अस्तित्व बताया है। (जैन ऐटीक्वेरी, भा० १० पृ० ३।) २१७ ३८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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