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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ मिलता है । भारतीय पुरातत्त्वमें प्राचीन मौर्यकालीन और अन्य मूर्तियां नग्न ही मिली हैं - सवस्त्र श्रमणत्वकी ज्ञापक कोई मूर्ति नहीं मिली है। केवली काल भ० महावीरके निर्वाणके पश्चात् जिनशासनकी प्रभावना केवली और श्रुतकेवलियों द्वारा की गयी है । शिशुनाग वंशके राजाओंके अतिरिक्त अन्य भारतीय शासक भी उसके पोषक रहे हैं । नन्दवर्द्धन, श्रादि कई नन्दवंशी नरेश भी जिनेन्द्रभक्त थे । इसके उपरान्त चन्द्रगुप्त मौर्य मगधके राज्यसिंहासनपर श्रारूढ़ हुए और भारतके सार्वभौम सम्राट् हुए। श्रुतकेवली भद्रबाहु उनके गुरु थे। चन्द्रगुप्त मौर्य और उनके पुत्र विन्दुसारने धर्मप्रचारका उद्योग किया था । जैसा कि सम्राट अशोकके लेखोंसे स्पष्ट है ।' चन्द्रगुप्त मौर्य श्रुतकेवलो भद्रबाहुसे दीक्षा लेकर मुनि हो गये थे और संघके साथ धर्मोद्योत करते हुए दक्षिणभारत गये थे । शक सं० ५७२ ल० के शिलालेखमें इन गुरु-शिष्यके विषयमें कहा गया है “जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्रके तेजसे भारी समृद्धिको प्राप्त हुआ था। हरिषेण 'कथाकोष' में सम्राट चन्द्रगुप्तको सम्यग्दर्शन सम्पन्न महान् श्रावक लिखा है" । श्रीयतिवृषभाचार्यने उन को अन्तिम मुकुटबद्ध राजा लिखा है जिसने मुनि दीक्षा ली थी । इनके बाद सम्प्रति और सालिस्कने देश-विदेशमें जिनशासन का ध्वज फहराया था । सम्प्रतिने भी अशोककी तरह धर्म लेख खुदवाये थे । मौर्यकालमें ही जिनशासन सूर्य सम्प्रदायगत संघर्षके राहुसे ग्रसित हुआ। उस समयकी उल्लेखनीय घटना जैन संघका दक्षिण भारतमें पहुंचना है। कहा जाता है वहां इससे पहले जैनधर्म नहीं था, किन्तु वस्तुस्थिति कुछ और ही है। कारण इस समय तक जैनधर्म दक्षिण भारतसे भी आगे सिंहलद्वीपतक जा चुका था । जैन शास्त्रोंके अनुसार भ० महावीरके बहुत पहलेसे जैनधर्म दक्षिण भारतमें १ महावग्ग ८,१५ ३-१, ३८, चुल्लवन्ग ८,२८,३, संयुत्तनिकाय २,३,१०,७ दीघनिकाय. पाटिकसुत्त, करस पसीहनादसुत्त अंगुत्तरनिकाय पृ० ३,७०-३ २ सप्तम स्तम्भलेख-अशोकके धर्मलेख पृ० ३७१ । ३ म०म० नरसिंहाचार्य कृत 'श्रावणबेलगोल' नामक पुस्तक । ४ 'श्रीभद्रबाहु स चन्द्रगुप्त मुनीन्द्रयु-मदिनोप्पेवल' । भद्रमागिद धर्ममन्दु बलिक्केबन्दिनिसल्कलो ।।'-जैनशिलालेखराँग्रह (स०१७) पृ०६ । ५ श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ४०, ५४ व १०८ देखो। ६ 'तत्काले तत्पुरि श्रीमांश्चन्द्रगुप्तो नराधिपः । सम्यग्दर्शन सम्पन्नो बभूव श्रावको महान् || २६ ॥ भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । अस्यैक योगिनः पावें दधी जैनोश्वरंतपः ।। ३६ ।। इत्यादि । ७. संक्षिप्त जैन इतिहास, भा० २ खंड १ पृ० २१८-२९८ । ८. महावंश-स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म, भा० १ पृ० ३३ २६६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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