SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साद्वंद्विसहस्राब्दिक वीर - शासन मुनि संघ साथ शिक व्रत (अणुव्रत ) धारक भी रहते थे। उनकी ग्यारह श्रेणियां (प्रतिमाएं ) आत्मोन्नति अनुसार थीं । ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक ( १ ) ऐलक और ( २ ) क्षुल्लक निर्ग्रन्थ कहे गये हैं- ये ‘एकशाटक' एक या दो वस्त्र रखनेके कारण कहलाते थे ।" उत्तर कालमें श्वेताम्बर समुदायन संघको 'जिनकल्पी' और 'स्थविरकल्पी ' भागों में विभक्त करके वस्त्र मुनिपदका भी विधान किया है। श्वेताम्बर श्रागम ग्रंथों में कहीं भी जिनकल्प - स्थविरकल्प विभाग नहीं मिलते हैं । यह भेदकल्पना उत्तरकालीन है । संभवतः बारह वर्षोंके दुष्कालके पश्चात् निर्ग्रन्थ संघके दो भाग हुए । मुनिचर्या दोनोंकी समान है श्वे० 'श्राचाराङ्ग सूत्रमें दिगम्बर मुद्राका ही सर्वोत्कृष्ट धर्म रूप से प्रतिपादन किया है जैकब ने लिखा है कि मुमुक्षुको मुनिपद धारण करने पर नग्न होनेका विधान है। नग्न मुनिको तरह तरहके परीषह सहन करने पड़ते हैं । 'उत्तराध्ययन सूत्र' में भी अनगारधर्मका निरूपण कर हुए उसे अचेल परीषह सहन करने वाला लिखा है४ | 'ठाणांग सूत्र' में भ० महावीर कहते हुए बताये गये हैं कि 'श्रमण निर्ग्रन्थको नग्नभाव, मुंड़भाव, स्नान नहीं करना, श्रादि उपादेय हैं" ।' निर्वाण पाने के लिए मुमुक्षु नग्न ( दिगम्बर ) मुनि होते थे । 'श्राचारांग सूत्र' में हीनशक्ति मुमुक्षुको क्रमशः तीन, दो और एक वस्त्र धारण करनेका विधान है । 'उत्तराध्ययन सूत्रमें पहले पांच अध्ययनों में अनगारधर्म का निरूपण करके - पांचवेंमें अचेलक अनगारको अकाममरण ( सल्लेखना) करनेका उपदेश देकर, छठवें अध्ययन में स्पष्टतः 'क्षुल्लक निग्रन्थ' (खुड्डा गनियंठ ) को उपदेश दिया है और सातवें अध्ययनका शीर्षक 'ऐलक' ( एलयं ) रखकर चरित्र नियमोंका निरूपण भेड़की उपमा देकर किया है यह सब अचेलकताका समर्थक है । प्राचीन बौद्ध ग्रन्थोंमें निर्ग्रन्थ श्रमण अचेलक नग्न ) ही लिखे हैं । उनमें गृहत्यागी उदासीन श्रावकोंका उल्लेख 'गिही श्रोदात् वसना' - ' मुण्डसावक' और 'एकशाटक नियंठ' नाम से १ आदिपुराण ३८ २५८ । Sutras, Pt. 1, P. P. 55-6. ३ 'जे अचेले परिवुसिए तरसणं भिक्खुस्स णो एवं भवइ - ' ४ ' अदुवा तत्थ परक्कमंत भुज्जो अचेल तणफासा फुसंति' ५ 'समणाणं नि.गंधाणं नागभावे, मुंडभावे, अण्हाणए । ठणाङ्गसूत्र | ९ ३ ९८ ६ समयं स जये भुजे जयं अपरिसाडियं ।। ३५ ।। ७ 'जस्सट्टाए कीरडु नग्गभावो नाव तमहं आरोहेइ । भगवती सूत्र ९ | ३३ Gaina Sutras (S, B. E.) Pt. 1, PP. 67-73. २९५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy