SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णो अभिनन्दन ग्रन्थ कहा' के आधारसे डा० वासुदेवशरण अग्रवालने भारतसे बाहरके काह आदि कुछ ऐसे द्वीपोंका पता लगाया है, जहां जैनी आते जाते थे' । तात्पर्य यह कि जैनशासनका क्षेत्र केवल भारतवर्ष को समझना निर्भ्रान्त नहीं है ! जैनेन्द्र धर्मचक्र भारत से बाहर के देशों में भी प्रवृत्त हुआ था । भ० महावीरकी प्रथम धर्मदेशनाद्वारा ही मगचसाम्राज्य की राजधानी राजगृहके निकट स्थित विपुलाचल पर्वत पर जिन शासनका उदय हुआ था । तत्कालीन वैदिक पंडित इन्द्रभूति गौतम और उनके भाइयोंकी जैनधर्म दीक्षा के साथ आगे बढ़ा था, यह अहिंसा संस्कृतिकी जय थी क्योंकि बाह्य क्रियाओं और पशुबलि धर्मकी आस्थाका अन्त हुआ था समाजमें स्त्रियों और शूद्रोंको समुचित स्थान मिला। धर्म और समाज जैन मुद्रा से अङ्कित हुए फलतः राजनीति पर भी उसकी छाप लगी । मेरे मतसे साम्राज्यवादी श्रेणिक ( बिम्बसार ) र कुणिक ( अजात शत्रु ) जिनशासन के अनन्य संरक्षक और प्रसारक हुए । गणतंत्रवादी संघ-पतियोंमें अग्रणो चेटक महाराज भी महावीरके अन्यतम उपासक थे । उनके अहिंसा आदर्शने भारतशासन में एक नवीन धारा बहा दी, निरामिष भोजन श्रीर संयमका महत्व स्पष्ट हुआ परस्पर सहयोग और संगठनसे रहकर जीवन वितानेका परिणाम भारतका प्रथम मगध साम्राज्य हुआ । संघ धर्म- जैन शासनकी यह विजय संघ धर्म व्यवस्थाकी देन थी। वीर मार्ग में शासन सूत्र सर्वज्ञ आचायोंके हाथों में रहता था। उसमें मुनि आर्यिका आवक और भाविका संघ ये मुनिसंघको श्रुतज्ञान भी गुरु परम्परासे कंठस्थ रूपमें मिलता था। साधुयोंका सारा ही संघ 'निर्मन्थ' नामसे प्रसिद्ध या । जैनके स्थानपर निर्मन्थ शब्द प्रयुक्त होता था। स्वयं भ० महावीर निर्व्रन्थ शातूपुत्र नामसे प्रसिद्ध थे। निर्ग्रन्थ साधु ( श्रमण ) अचेलक ( नग्न ) रहते थे । २ आर्यिका संघका जीवन भी निश्चित था । सती चन्दनबाला के नेतृत्वमें जैन श्रार्यिकाएं स्वपरकल्याणमय जीवन बिताती थीं 'पद्मपुराण' में ( पृ० ८८३) तथा 'बेरीगाथा' (१०७) से यह भी स्पष्ट है कि आर्यिकाएं केशलुचन करतीं धूल धूसरित शरीर रहतीं और एक वस्त्र पहना करती थीं। मुनि और आर्थिकाओंका लक्ष्य मोक्ष था। 1 १ "भारतकी सोमाकी बाहरी प्रदेशों में भी जैन उपदेशकोने धर्मप्रचारके प्रयत्न किये थे। चीन यात्री हुएनसांग किलापिशीमें आँखों देखे उल्लेखसे, हरिभद्रजी के शिष्यों की कथासे एवं कुच विषयकी हकीकतके ग्रइनबेडल के जर्मन अनुवाद से सिद्ध है कि वीर धर्म के उपदेशकों को समुद्रका कोई बाधा न थी ।" त्रो० हेल्मुथ फान घोमनाथ । २ दिध्वनिकाय ( पाटिक सुत्त ) महावग्ग ८ १५, ३-६-३८-१६० जातकमाला पृ० १४५, दिव्यावदान पृ० १८५, ऋग्वेद संहिता १०-१३५; वेदान्तसूत्र २/२/३३, वराहमिहिर संहिता १९६१ तथा ४५-५० दशकुमार चरित २ ; महाभारत ३।२६ - २७; विष्णुपुराण ३|१८; दाठावंसो इत्यादि । ३ Psalms of the Sisters, p. 63 व 'भ० महावीर और भ० बुद्ध पृ० २५९-२६२ २९४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy