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________________ सार्द्धद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासन हो गया । निर्ग्रन्थ (दि०) आगमका उद्धार भी गिरिनगरके पास चन्द्रगुफामें विराजमान श्री धरसेनाचार्य द्वारा हुआ था। संघभेद-- निर्ग्रन्थ संघकी दोनों धाराए भी अन्तर भेदोंमें बंट गयी थीं । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें चौरासी गच्छोंके उत्पन्न होनेकी बात कही जाती है। दिगम्बर सम्प्रदायमें भी प्राचार्य अर्हद्वलिके समयसे निर्ग्रन्थ संघ, जो श्वेताम्बरोंसे अपनेको अधिक प्राचीन माननेके कारण 'मूलसंघ' नामसे प्रसिद्ध था, निम्नलिखित चार संघोंमें बंटगया था १ नन्दिसंघ-नन्दिवृक्षके नीचे चौमासा माढ़ने वाले श्राचार्य माघनन्दि के नेतृत्वमें । २ सेनसंघ-श्राचार्य जिनसेनके नेतृत्वमें । ३ सिंहसंघ--सिंह गुफामें चातुर्मास विताने वाले प्राचार्य के नेतृत्वमें । ४ देवसंघ-देवदत्ता नर्तकीके श्रावासमें चौमासा वितानेवाले श्राचार्य के नेतृत्वमें । ईसाकी प्रारम्भिक शतियोंमें जैन संघमें अान्तरिक श्रापत्तिका प्राबल्य रहा-उसका कारण केवलियोंके अभावके साथ वीर-वाङ्मयका अभाव भी था। ऋषियोंको भिन्न परम्पराएं और मान्यताए याद थीं और वे अपनी अपनी बात कहते थे । अतएव प्रमाणिक शास्त्रोंको लिपि बद्ध करानेके लिए ही चन्द्रगुफामें स्थित श्रीधरसेनाचार्य ने कर्णाटिक देशसे भूतबलि और पुष्पदन्त मुनियोंको बुलाकर उनको वीर वाणो सुनायी थी किन्तु यह सिद्धांत ग्रन्थ दिगम्बर जैनोंको ही मान्य रहे । श्वेताम्बरोंने इसके बहुत बाद वल्लभीमें देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ( ई० ५ वीं श०) की अध्यक्षतामें अपने अङ्गोपाङ्ग-श्रुतका संकलन किया और तभी वह लिपिबद्ध किया गया। संघ छिन्न-भिन्न हुा । प्रत्येक विभक्तसंघका श्राचार्य अपनी मानमर्यादा और अपने भक्त बढ़ानेकी धुनमें संघके एक रूपको भूल गया था । कालकसू रि शकदेश गये और शक शाही राजाओंको प्रबोधकर श्रावक बनाया । उन्हें गुजरातमें लिवा लाये और गर्दभिल्लके अत्याचारका अन्त किया। आंध्रवंशके शातवाहन नरेश भी जैनधर्मसे प्रभावित हुए थे। मूलसंघाग्रणी श्राचार्यप्रवर श्री कोण्डुकुन्द पद्मनन्दि स्वामीने पल्लवनरेश कुमार शिव स्कन्धवर्माको जैनधर्मका अनुयायी बनाया । पल्लवनरेशोंके दानपत्र प्राकृतभाषामें हैं । कोंडुकुन्दस्वामीके महान् व्यक्तित्वका प्रभाव सारे भारतमें व्याप्त हुआ । उनका 'कुरल' काव्य तामिलदेशमें वेद-तुल्य मान्य हुश्रा' । निर्ग्रन्थ ( दिगम्बर ) श्वेतपट, यापनीय, कूर्चक, आदि संघोंके प्राचार्योंने कदम्ब सम्राटोंको भी जिनेन्द्रका भक्त बनाया, तथा जनताको भी । कदम्ब सम्राट् श्री रविवर्माका शासनलेख अाजके संसारके लिए भी हितकर है १. "प्रवचन सार" की श्री उपाध्ये द्वारा लिखित भूमिका । २. संक्षिप्त जैन इतिहास, तृतीय भाग द्वितीय खंड पृ० २५-३२ । 'जनहितैषी' भा० १४ पृ० २२७ । २६६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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