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स्वर्गीय पं० शिवदर्शनलाल वाजपेयी सुधाकर शुक्ल, साहित्यशास्त्री, काव्यतीर्थ
प्राचीन कालसे ही वाङ्मयके विस्तार एवं प्रचारके लिए समय समय पर ब्रह्मर्षि तथा राजा अवतीर्ण होते रहे हैं । उनके स्तुत्य प्रयत्नोंके कारण अपूर्ण पार्थिव पदार्थों में भी आज भी दिव्यताके दर्शन हो जाते हैं। उन निष्काम कर्मयोगियोंने निर्जन कान्तारोंमें गुरुकुल बनाकर जंगल में मंगल उपस्थित कर दिया था। ऐसे गुरुकुलोंसे हिमालय और विन्ध्यके विशाल अरण्य भरे पड़े थे जिनमें सकल-कला-कुशल कुलपतियोंकी संरक्षकतामें दश सहस्त्र बालक विद्योपार्जनके साथ साथ भरण पोषण भी पाते थे । भारद्वाज, अत्रि, अंगिरा, जमदग्नि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वरतन्तु, वाल्मीकि, अगस्त्य और कण्व, प्रभृति कुलपतियोंकी कृपासे ही भारत भूतकालका भाल-भूषण बना हुआ था। और अवनति काल में भी वे नालन्दा और तक्षशिला जैसे विशाल विद्यापीठोंको प्रतीक रुप में छोड़ गये, जिनके पाणिनि, वररुचि और चाणक्य जैसे विद्या विशारद स्नातकोंने मोहमग्न और यवनपदाक्रान्त आर्यावर्तको पतनके गम्भीर गर्तसे निकाल ही नहीं लिया अपितु प्राचीन पद्धतियोंको ही उद्धारका अाधार सिद्ध कर दिखाया । सच पूछिये तो अल्प व्यय में अनल्पज्ञान-राशि वितरण करने वाले वह गुरुकुल, श्राजके पुष्कल धनराशिको होम देने वाले वाह्याडम्बरोंके प्रचारक, स्वास्थ्यके दावानल आधुनिक विश्व विद्यालयोंको चुनौती दे रहे हैं । आज तो ज्ञान और विज्ञानके साधनोंकी अपेक्षा विद्याभवनोंके निर्माण में कहीं अधिक धन व्यय किया जाता है किन्तु प्राचीन काल में 'अहःनीवार मुष्टिपचना' महर्षि केवल शैल शिलातलों पर बैठकर अध्यापन करते हुए प्रकृतिकी कृतिको कितना कमनीय और पावन बना देते होंगे । 'एते त एव गिरयो विरुवन्मयूरास्तान्येव मत्तहरिणानि शिलातलानि, ये वातिथेयपरमा यमिनो भजन्ते, नीवार मुष्टिपचना गृहिणो गृहाणि ।'
अध्ययनाध्यापनकी यह प्रकृति पावन प्राचीन प्रणाली यद्यपि काल-चक्रकी लपेट में आ गयी हैं परन्तु सर्वथा नामशेष नहीं हो पायी और आज भी कुछ तपोधन मनस्वी उसको जीवित रखनेके प्रयत्नमें प्राणपणसे सचेष्ट हैं। हमारे चरितनायक पं. शिवदर्शनलालजी वाजपेयी उसी परम्परा के थे, यद्यपि समयकी गति तथा परिस्थितियों के कारण उनकी शिक्षा दीक्षा पर्याप्त रुपसे न हो सकी थी।
फिर भी होनहार विरवानके होत चीकने पात'के अनुसार आपमें वृद्धों तथा विद्वानोंमें भक्ति,