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धवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंका संक्षिप्त परिचय
श्री पं० लोकनाथ शास्त्री ग्रंथ परिचय--
अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीकी दिव्य-ध्वनिकी गौतम गणधरने द्वादशांग इतके रूपमें रचना की । जिसका ज्ञान प्राचार्य परंपरासे क्रमशः कम होते हुए धरसेनाचार्य तक आया । उन्होंने बारहवें अंग दृष्टिवादके अंतर्गत 'पूर्व एवं पांचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्तिके कुछ अंशोंको पुष्पदंत और भूतबलिको पढ़ाया। उन्होंने 'सत्कर्म पाहुड' की छह हजार सूत्रोंमें रचना की । इसका नाम षट्खंडागम-सिद्धान्त है । जिसमें जीव स्थान, क्षुल्लक बंध, बंधसामित्त-विचय, वेदना, वर्गणा, और महाबंध नामके छह विभाग हैं । उसके पहलेके पांच खंडों पर वीरसेन स्वामीने धवला नामकी टीका या भाष्यकी रचना शक सं० ७३८ में पूरी की। यह ७२ हजार श्लोक परिमाण है।
षड्खंडागमका छठवां खण्ड महाबंध या महाधवल है जिसकी रचना स्वयं भूतबलि आचार्य ने बहुत विस्तारसे ४० हजार श्लोक परिमाण गद्य रूपसे ही की है । उस पर विशेष टीकाएं नहीं रची गयीं।
धरसेनाचार्य के समयमें गुणधर नामके एक और प्राचार्य हुए हैं । उन्हें भी द्वादशांगका कुछ शान था। उन्होंने कषायप्राभृतकी रचना की। उसे पेज्जदोसपाहुड भी कहते हैं । इसका आर्यमंक्षु
और नागहस्तिने व्याख्यान किया और यतिवृषभाचार्यने उस पर चूर्णी-सूत्र रचे। इस पर भी श्री वीरसेन स्वामीने टीका की । परंतु, वे उसके आद्यंशपर २० हजार श्लोक परिमाण टीका लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये । तब उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्यने ४० हजार परिमाण और टीका लिखकर उसे पूरा किया । इस टीका या भाष्यका नाम जयधवला है । इसका परिमाण ६० हजार है।
इन तीनों ग्रंथोंकी ताडपत्रीय प्रतियां मूडबिद्रीके सिद्धान्त मंदिर में विराजमान हैं। उनमें धवला की तीन प्रतियां हैं । तीनोंके अक्षर समकालीन जान पड़ते हैं। उनमेंसे एक प्रति प्रायः पूर्ण है । दूसरी प्रतिमें बीचके कई पत्र नहीं हैं। और तीसरी प्रतिमें तो सेकड़ों पत्र नहीं हैं। जयधवलाकी एक ही प्रति है। वह संपूर्ण है । महाबंधकी एक ही प्रति ताडपत्रकी है। जिसमें बीच बीचके कई ताडपत्र नहीं हैं।