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________________ अनन्तकी मान्यता राय बहादुर प्रा. ए. चक्रवर्ती एम. ए. . आधुनिक दार्शनिकोंकी आपत्ति - दार्शनिक विद्वानोंने अपने दार्शनिक निर्णयोंको समझाने के लिए अनन्तके विषय में गणित के शब्दों का उपयोग किया है। परमेनडीज़ और जीनूसे लेकर काण्ट तथा बर्गसन तक के दार्शनिकोंने समझा है कि अनन्त शब्द में आत्म-विरोध भरा हुआ है। इस कल्पना के आधारपर उन्होंने सिद्ध किया है कि आकाश तथा काल स्व-विरोधी हैं । दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी काण्टकी उन विरुद्ध बातों (Antimolies ) से सुपरिचित हैं जिन्हें उसने स्व-विरोधी बताया है । उनकी श्रापत्तिका मुख्य आधार यह है कि श्राकाशमें प्रदेश नहीं हो सकते और कालमें क्षण ( Moments ) नहीं हो सकते । यदि कालमें क्षण पाये जावें तो थोड़े से मर्यादित कालमें गणित क्षणोंकी संख्या होगी और तब यही बात स्व-विरोधी बन उठेगी । सर्वत्र ऐसा समझकर दार्शनिकोंने श्राकाश और कालको अ यथार्थ मानकर परित्याग कर दिया और इस प्रकार अपनी केवल आदर्शवादी ( Idealistic Systems ) विचार-प्रणालीका निर्माण किया है । अनन्त का विरोध -- काण्ट ( Kant ) इस आधिभौतिक निर्णयपर पहुंचे हैं कि भौतिक वस्तु-संयुक्त बहिर्जगत में जो आकाश है वह यथार्थ और वास्तविक है । इस निर्णय का आधार यही विचार है कि अनंत विषयक गणित शास्त्रका विचार स्व-विरोधको प्रकट करता है, इसलिए वह असम्भव है । कुछ वर्ष हुए बी. रसल (B, Russel ) तथा ह्वाइटहेड ( White head ) सदृश गणितज्ञोंने स्पष्टरूपसे बतलाया है। कि विभाजन के सम्बन्ध में ऐसी कल्पना अनुचित और प्रसिद्ध है । उन्होंने अधिक स्पष्ट किया है कि अनंतकी कल्पना या उसका भाव स्व-विरोधी नहीं है और यह मान्यता सान्त और अनन्त संख्याओं के भ्रमके कारण स्व-विरोधी प्रतीत होती है । गणना के द्वारा प्राप्त सान्त संख्या में वे बातें हैं जो अनन्त संख्या में नहीं पायी जातीं । सान्त संख्या में दूसरी सान्त संख्याका योग करनेपर अथवा इसमें से दूसरी सान्त संख्या के घटाने पर हानि-वृद्धि पायी जाती है । इस प्रकार १ २ ३ ४, आदि संख्या माला बताती हैं कि ११४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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