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________________ गिरिराज विन्ध्याचल यह पवित्र पर्वत सिद्धों और गंधवों द्वारा सेवित है। जहां भगवान् शंकर देवी उमाके सहित सर्वदा निवास करते हैं। जी महानुभाव अमरकंटककी प्रदक्षिणासे हजार यज्ञोंका फल पानेमें विश्वास नहीं रखते, न जिन्हें सौन्दर्य तृष्णा ही सताती है, उनके लिए भी विन्ध्यकी नाना विध वन्य तथा खनिज संपत्ति कम आकर्षणकी वस्तु नहीं है। यहां पाठकोंके मनोरंजनार्थ महाभारतसे एक विन्ध्याचल संबंधी अनुश्रुति उद्धृत करनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता। यह कथा अगस्त्य ऋषिके महात्म्यके प्रसङ्गमें लोमश ऋषिने युधिष्ठिरको सुनायी थी ।...... ___ “जब विन्ध्य पर्वतने देखा कि सूर्य उदय और अस्तके समय स्वर्णमय पर्वतराज मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं तब उसने सूर्य से कहा.--'हे सूर्य ! जैसे तुम प्रतिदिन मेरुकी प्रदक्षिणा करते हो, वैसे ही हमारी भी प्रदक्षिणा करो।' पर्वतराजके ऐसे वचन सुनकर सूर्य बोले-'मैं अपनी इच्छासे थोड़े ही मेरुकी प्रदक्षिणा करता हूं, जिन्होंने यह जगत् बनाया है, उन्होंने मेरा यह मार्ग निश्चित कर दिया है ।' सूर्य के ऐसे वचन सुनकर विन्ध्यको अत्यन्त क्रोध हुआ और सूर्य तथा चन्द्रमाके मार्गको रोकने की इच्छासे वह अपने को ऊंचा उठाने लगा यह देख देवगण तब एक साथ उसके पास आये और उसे इस कार्यसे रोकने लगे, परन्तु उसने एक न सुनी, तब सब देवगण, तपस्वी और धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अगस्त्य ऋषिके अाश्रममें पहुंचे और उन्हें अपना अभिप्राय कह सुनाया—'हे द्विजोत्तम ! पर्वतराज विन्ध्य क्रोधके वशवर्ती होकर सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रोंके मार्गको रोकना चाहते हैं । हे महाभाग, आपके सिवा उन्हें और कोई नहीं रोक सकता, इसलिए कृपाकर उन्हें रोकिये।' देवताओंके वचन सुनकर अगस्यने अपनी पत्नी लोपामुद्राको साथ लिया और विन्ध्यके निकट पहुंचे । उनके स्वागतके लिए विन्ध्य उनके निकट उपस्थित हुअा तब ऋषिने विन्ध्यसे कहा---'हे गिरिश्रेष्ठ. हम विशेष कार्यसे दक्षिण जाना चाहते हैं, इसलिए मुझे जाने के लिए मार्ग दो और जब तक हम लौट न आयें तब तक ऐसे ही प्रतीक्षा करते रहो, जब मैं आजाऊ, तब तुम इच्छानुसार अपनेको बढ़ाना।' इस प्रकार बचन देकर अगत्य दक्षिणको चले गये फिर वहांसे लौटे नहीं और बेचारा विध्य अब तक शिर झुकाये उनकी बाट जोह रहा है।" ___यह कथा प्राचीन कालसे ही काफी प्रसिद्ध रही है, कालिदासने भी रघुवंशमें "विन्ध्यस्य संस्तंभयिता महाद्रेः' कह कर इसी कथाकी अोर संकेत किया है, देवी भागवतकारने भी उसे उद्धृत किया है यद्यपि श्रोताओंका ख्याल करके नमक मिर्चका पुट भी उसमें दे दिया है। इस कथाका अभिप्राय क्या ५२५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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