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- अभिनन्दन ग्रन्थ
है यह तो ठीक नहीं कहा जा सकता, पर संभव है "कृणुध्वं विश्वमार्यम्" अथवा सच कहें तो 'आर्यमयम्' के उद्देश्यको पूरा करनेके लिए उत्सुक आर्यंजनोंने दक्षिण देशकी दुर्गमताकी थाह लेने के विचार से जो प्रयत्न किये थे, उन्हींका चित्रण इस कथामें किया गया हो ।
जो हो, विन्ध्याचल सचमुच भारतका पितामह है । इस पृथ्वी के लाखों करोड़ों वर्ष के आलोडन संघर्षण - परिवर्तन उसने अपनी आंखों से देखे हैं, अजीव कल्प मौनदृष्टा रहा है और सजीव कल्पकै गगन चुम्बी वृक्षों, वनकेवल उसने अपने नेत्रों से देखा ही है, उन्हें गोद में भी
विलोडन और इस जगत् के जाने कितने की लाखों वर्षों की विराट शून्यताका वह स्पतियों तथा दानवाकार वन्य जन्तुओं को न खिलाया है।
खटिका युग के कितने भीम भयंकर भूकंप उठा । धरणीके कितने रूप परिवर्तन, कितने महासागरोंका अन्त और कितनी स्थलियोंके उद्भवको उसने कौतुक के साथ देखा है । श्राजके शैलराट हिमालय को अभी उस दिन सौरीगृहमें देख वह मुस्कराया था और अब उस कलके शिशु हिमालयको आसमान से बातें करते देख वह अगस्त्य के लौटने की प्रतीक्षा में दक्षिणकी ओर बार बार देखने लगता है, पर हाय ! "अद्यापि दक्षिणोद्देशात् वारुणिन निवर्तते" ( आज भी अगस्त्य दक्षिण से लौटते दिखायी नहीं देते ) | मानव के नाम के इस विचित्र प्राणीको अस्तित्व में आते और चारों ओर फैलते उसने देखा है, कितने गर्वोद्धत विजेता की अदम्य लिप्साए उसकी छातीको रौंदती हुई चली गयी हैं, और कितने हतदर्प परन्तु स्वाभिमानी पराजितोंने प्राणोंकी बाजी लगा कर उस लिप्सा के दांत तोड़नेका महोद्यम किया है, इसका सारा लेखा जोखा उसके पास है
हमारा बुन्देलखंड इस वृद्ध पितामहकी जगह में बैठ कर शत शत स्नेह निर्झरियों से अभिषिक्त होकर गर्वित है, और उसकी चट्टानोंको तोड़फोड़ कर उछलती कूदती नर्मदा तो मानो युग युगकी अनुभूतिकी वाणी सी अपनी वन्या से चुप्पी के कगारोंको तोड़ती हुई हृदयके अतल गंभीर देश से बहती चली आती है !
हे पुरातन गिरिश्रेष्ठ !
शैलराज हिमालयके हे ज्येष्ठ बन्धु !!
तुम्हें कोटि कोटि प्रणाम ।
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