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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ इत्यादि । अाखिर उसके खेत देखने के ब द कुछ तै करने का निश्चय किया, उसे किसी दिन संध्या समय आने को कहा। ___ एक दिन मैं स्कूलसे आया नहीं कि उसे दरवाजे पर डटा हुआ पाया । नागवार तो गुजरा परन्तु उसे वचन दे कुका था, उसके साथ जाना ही पड़ा। कई खेतोंको पार करके उसके खेतोंपर पहुंचा। खेती पातीका कुछ अनुभव तो है नहीं, सौदा भी इतना बड़ा नहीं था कि उसमें जादा चख चख की जाती। चालीस पचास रुपये की कुल बात थी क्योंकि बुडडा खेत बेचनेको नहीं सांझे पर उन्हें जोतनेको तैयार था। समझ लिया पचास रुपये न सही मनमें ऐसा हिसाब लगाकर बात तै कर दी। लिखा पढी कर देने पर बात आयी, मैंने उसे फिर समय दिया, वह फिर आया कई बार आया पर लिखा पढ़ीका कुछ साधन न मिल सका । आखिर एक दिन मैंने बला सी टालनेकी गरजसे दो रुपये दिये और कहा जाओ खेतों में काम शुरु करात्रो। लिखा पढ़ी फिर देखी जायगी। बड़ा रुपया लेकर चला गया। आठ दस दिन तक फिर नहीं आया। मैं समझ गया रुपया गये। आखिर एक दिन वह बाजार में मिला। मैंने पूछा —'क्यों रे फिर नहीं आया तूं । कुछ काम शुरु कराया ?' 'नहीं मालिक, मजदूर नहीं मिलते । अापके रुपया रक्खे हैं । मजदूर न मिले तो वापस कर जाऊंगा। सारे गांवसे कह कर हार गया । कोई नजदीक खड़ा नहीं होता। उसकी शक्ल देखकर मुझे उसके कहने में सचाई दीख पड़ी। ख्याल हुआ मजदूरों को मजदूर कहां रक्खे हैं और फिर आजकल । मैंने उसके ईमानकी परीक्षा लेनेकी गरजसे उसे कुछ दिनका और अवकाश देना उचित समझा : इसके बाद गर्मी की छुट्टियां आ गयीं, हमारा स्कूल बन्द हो गया और मैं दो महीने के लिए घर चला गया। जब लौटा वर्षा शुरु हो गयी थी। एक दिन सहसा उस बुड्ढेकी याद अायी प्रश्न दो ही रुपयेका था,परन्तु वह भी क्यों मुफ्त जावे। एक ग्रामीण उल्लू बनाकर ले जावे ! यह बात मुझे गवारा न थी। बुड्ढे पर क्रोध था रुपया उसके पुरखोंसे ले लेनेका संकल्प दुनियांकी धूर्तता कर, बेईमानी, दगाबाजी, बदमाशी, इत्यादि पर सोचता हुआ एक दिन उस बुड्ढे के घर जा ही पहुंचा। पर उसका घर देखते ही मेरे सारे विचार सहसा बदल गये। एक घर था, सामने छपरी जिसकी दो दो हाथ ऊंची मिट्टीकी दीवाले छप्परके बोझसे झुक सी रही थीं। छप्पर दीवालोंको दबाकर जमीनको छूनेकी कोशिश सी कर रहा था। दीवालें तब भी उस बुड्ढे के समान जीवन संग्राममें डटी हुई थीं, यद्यपि उनमें यत्र तत्र कूबड़ निकल रहे थे, मिट्टी खिसक रही थी, कहीं कहीं बड़े धुधुआ हो रहे थे, सामनेका घर आगेसे देखनेसे तो कुछ अच्छा मालूम होता था। दरवाजेमें किवाड़ लगे थे मगर पीछेसे वह भी भस-भसा गया था। प्रागेकी छपरी ही कुल रहनेकी जगह थी। पर उसकी छवाई नहीं हुई थी। उसमें इतना पानी टपक रहा था कि छपरीका सारा फर्श दल दल बन गया था। पैर रखनेको भी कहीं ५८०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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