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________________ जैन दर्शन द्रव्य मात्रको ग्रहण करने वाला तथा गुण और पर्यायमात्रको ग्रहण करनेवाला नय क्रमसे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक कहलाता है । नैगम, संग्रह और व्यवहार नयके भेदसे तीन प्रकारका द्रव्यार्थिक होता है इसी तरह ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत यह चार प्रकारका पर्यायार्थिक न होता है । वस्तुका प्रत्यक्ष करते समय श्रारोप तथा विकल्पको नैगम नय ग्रहण करता है । एकके ग्रहण में तजातीय सबका ग्रहण करनेवाला संग्रह नय होता है । पृथक् पृथक् व्यवहारानुसार ग्रहण करनेवाला व्यवहार नय है । वर्तमान पर्यायको ग्रहण करना ऋजुसूत्रनयका कार्य है । व्याकरणसिद्ध प्रकृति, प्रत्यय, लिंग आदि ग्रहण करनेवालेको शब्दनय कहते हैं | पर्यायवाचक शब्दोंकी व्युत्पत्तिके भेद से भिन्न प्रथको ग्रहण करनेवालेका नाम समभिरूढ़ नय है । अन्वयार्थक संज्ञावाले व्यक्तिका उस कामको करनेके क्षण में ग्रहण करनेवाला एवंभूत नय है । जब प्रमाण अपने ज्ञेय विषयों को जानते है तब ये नय उनके अंग होकर ज्ञान प्राप्तिमें सहायता पहुंचाते हैं । इसलिए तत्त्वार्थ सूत्रकारने वस्तुके निरूपण में एक ही साथ इनका उपयोग माना है । निक्षेप इसी तरह वस्तुके समझानेके लिए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपका भी उपयोग होता है । अन्त में यह सिद्धान्त व्याकरण महाभाष्यकार की 'चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः से मिलता जुलता है । साधारणतः संज्ञाको नाम' तथा झूठी सांची श्रारोपणाको स्थापना, एवं कार्यक्षमताको द्रव्य और प्रत्युपस्थित कार्य या पर्यायको भाव कहते हैं । जैन तंत्र वस्तु के निरूपण में इतने उपकरणों की अपेक्षा रखनेवाला होनेके कारण प्रथम कक्षाके लोगों के लिए दुरुह सा हो गया है। पर इसके मूल तत्त्व समझमें या जानेके बाद कोई कठिनता नहीं मालूम होती । इसी तरह क्षेत्र, काल और स्वामी श्रादिका ज्ञान भी आसान हो जाता है । लोकका स्वरूप एक हजार मनका लोहेका गोला इन्द्रलोकसे नीचे गिरकर छह मास में जितनी दूर पहुंचे उस सम्पूर्ण लम्बाईको एक राजू कहते हैं । नृत्य करते हुए भोंपाके समान श्राकार वाला यह ब्रह्माण्ड सात राजू चौड़ा और सात राजू मोटा तथा चौदह राजु ऊंचा (लम्बा ) है । अन्य दर्शनोंके समान जैन दर्शन भी स्वर्ग, नरक तथा इन्द्रादि देवताओं के जुदे जुदे लोक मानता है । जीवात्माका विस्तार — यह दर्शन जीवात्माको समस्त शरीर व्यापी मानता है । छोटे बड़े शरीरों में दीपकके समान जीवात्मा के भी संकोच विकास होते रहते हैं । परन्तु मुक्त जीव अन्तिम शरीर से कुछ कम होता है । १. लेखक महोदयने किसी ग्रन्थके आधार से तीन भाग कम लिखा है । ८३
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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