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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अवधि और मनःपर्यय इन दो भेदोंसे विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष दो प्रकारका होता है। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावकी अपेक्षासे विना इन्द्रियोंकी सहायताके रूपी पदार्थों को समर्याद जाने वह अवधिको लिये हुए होनेके कारण अवधि पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है अन्य जीवोंके मानसिक विषय बने हुए रूपी पदार्थों के पूर्वोक्त प्रकारके अनुभवको मनःपर्यय विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इसतरह यह पारमार्थिक प्रत्यक्ष अवधि, मनःपर्यय, तथा केवल इन तीन ज्ञानोंमें समाप्त हो जाता है। जो किसी भी रूपमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञानकी सहायतासे हो वह ज्ञान परोक्षज्ञान कहा जाता है । वह स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान और प्रागम के भेदसे पांच प्रकारका होता है। इनके जो लक्षण अन्य शास्त्रोंने किये हैं उनसे मिलते जुलते ही जैन शास्त्रोंने भी किये हैं। इसलिए वे सबमें प्रसिद्ध हैं। अतएव अनुमान आदिके लक्षण आदि यहां देनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। यही परोक्ष ज्ञान श्रुतज्ञानके नामसे भी व्यवहृत होता है । इस प्रकार प्रमाण माना हुअा ज्ञान अपने अमित भेदोंको भी साथ लेकर (१) मति (२) श्रुत (३) अवधि (४) मनःपर्यय और (५) केवल, इन पांच ज्ञानोंके अन्दर गतार्थ हो जाता है । अन्य दर्शनोंने किसीको नित्य और किसीको अनित्य माना है, पर यह दर्शन कहता है कि श्रादोपमाव्योमसमस्वभाव स्याद्वादमुद्रानति भेदि वस्तु। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यद् इति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रलापा ॥ यह बात नहीं है कि आकाश ही नित्य हो, यह और दीपक दोनों ही एकसे स्वभाव वाले हैं। दोनों ही क्यों ? कोई भी वस्तु उस स्वभावका अतिक्रमण नहीं कर सकती, क्योंकि सबके मस्तकपर स्याद्वाद यानी अनेकान्त स्वभावकी छाप लगी हुई है। जो किसीको नित्य, पुनः किसीको अनित्य कहते हैं वे अकारण जैन शास्त्रके साथ द्वेष करते हैं। स्याद्वाद शब्दमें स्यात् यह अनेकान्त रूप अर्थका कहनेवाला अव्यय है ? अतएव स्यादवादका अर्थ अनेकान्तवाद कहा जाता है। परस्पर विरुद्ध अनेक धर्म, अपेक्षासे एक ही वस्तुमें प्रतीत होते हैं; जैसे द्रव्यत्व रूपसे नित्यता तथा पर्यायरूपसे अनित्यता प्रत्येक वस्तुमें प्रतीत होती है। इसीको अनेकान्तवाद कहते हैं । एकान्तसे नित्य, अनित्य आदि कुछ भी नही है किन्तु अपेक्षासे सब हैं। कोई कोई विद्वान् इसे अपेक्षावाद भी कहते हैं। यह दर्शन प्रमाण और नयसे पदार्थकी सिद्धि मानता है। प्रमाण तो कह चुके हैं अब नयका भी निरूपण करते हैं। अनन्त धर्म वाली वस्तुके किसी एक धर्मका अनुभव करने वाले ज्ञानको नय कहते हैं। क्योंकि वस्तुका मति, श्रुतज्ञान होनेपर भी उसके समस्त धर्मोंका ज्ञान नहीं हो सकता । उसके किसी एक अंशके अनुभवका निरूपण, नयसे भली भांति हो जाता है। ८२
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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