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गीत
सागर में आयी एक लहर वह नव उमंग का मृदुल-लास, लहराती लेकर नया हास वह ज्ञान-ज्योतिकी स्वर्ण किरण, तम में भी देती दिवि-प्रकाश
__ बिखराती मुक्ता छहर-छहर ! वह सब लहरोंमें चिर-नवीन; भीतर सुस्थिर, बाहर प्रवीण जिसका दर्शन कर; अंतर में, बज उठती सहसा मधुर वीन
प्रतिध्वनि करती प्रत्येक पहर !
वह बुद्ध-मूर्ति-सी जंगल की; सबकी, जल-थल-नभ मंडल की रवि से आलोकित- कुसुमाकर, किरणें विखेरती मंगल की
प्रस्तुत करती नव-संवत्सर !
तट - जनके रीते - से मनकी, पूरक बन कर वह कण-कण की झंकृत करती स्वर-लहरी से, ध्वनि एक उसी, मनमोहन की
पल-पल करती शीतल, अंतर ! सागर में आयी एक लहर
सागर ]
(पं०) पुरुषोत्तम दास कठल, बी० ए०
इकतीस