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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ आति वाचक होकर भी वर्णी शब्द आज व्यक्ति वाचक हो गया है , कारण उसके सुनते ही पूज्य पं० गणेशप्रसाद वर्णीकी श्यामल कृश सरल मूर्ति सामने आ जाती है। उनकी दृष्टिमें मानव मात्र समान है। अपने सरल त्यागी रूपके कारण ही आप भावुक जैनेतर जनताके भी वन्द्य हुए हैं । श्राप करुणा-पावस हैं जिसके श्रासारमें पात्र अपात्रका विचार ही नहीं रहता है । अभी आप ७४ वर्षके हैं । यही भावना है कि आप सैकड़ों ७४ वर्ष जैन समाज और विशेष कर विद्वद्वर्गपर अपना करुणा रस बरसाते रहें। सूरत ] (मास्टर) ज्ञानचंद्र 'सवतंत्र' मैं सागर विद्यालयमें पढ़ता था और स्याद्वाद विद्यालय काशीमें प्रविष्ट होना चाहता था,लेकिन दुर्भाग्य वश भूलसे पत्रोंसे मेरी अनुत्तीर्णता प्रकाशित हो गयी, अतः स्या० वि० काशीके लिए अयोग्य साबित हो गया । सागरसे भी ट्रान्सफर सर्टीफिकेट ले चुका था, अतः पुनः प्रविष्ट होना टेढ़ी खीर थी। इस समय मैं घरका न घाटका था। अनुनय विनय सभी शक्य उपायोंका प्रयोग कर चुका था, लेकिन सब बेकार; अन्तमें पूज्य वर्णीजीकी शरण ही सरल सुगम एवं श्रेयस्कर समझी । उनके पास पहुंचकर मैंने अपना रोना रोया, वे बोले, "भैया, तुम लोग पढ़त लिखत तो हो नहीं,और फेल होके हमारे पास रोउत आ जात हो, भैया अपन तो कछू नहीं जानत तुम जानों तुमानो काम जाने" क्षण भर ऐसा लगा कि यहां भी सुनवायी न होगी ये भी औरोंके समान कठोर हैं तथापि मैं अपनी सफाई पेश करने में लगा रहा ! वन्दनीय महामना को पात्र अपात्रका विचार भी बहा देने वाली अपनी करूणाधारा रोकना असम्भव हो गया । व्यवस्थाभंगने क्षण भर रोका, किन्तु बेकार, पेन्सिल उठायी और अपने दया-चालित करकमलों द्वारा स्या० वि० काशीको लिख दिया “यदि रिक्त स्थान हो इसे दे दिया जाय।'' मुझे स्थान मिल गया। अङ्कानुसन्धान कराने पर मैं उत्तीर्ण भी हो गया। जैनसमाजके मुकुटमणि विद्यालयके व्यापक एवं विकासशील वातावरणमें अपनी अपूर्णताओंको भी पूर्ण कर सका। जिस वन्दनीय महापुरुषकी दयासे यह सम्भव हुआ उसका स्मरण आते ही 'नारिकेल समाकारों' मुखसे निकल पड़ता है । चौरासी मथुरा - (विद्यार्थी) कुन्दनजैन पू० श्री वर्णीजीका जब ध्यान अाता है तो यह सोचना असंभव हो जाता है कि उनमें क्या नहीं है ? उन सब योग्यतारोंमें दुर्बल और पतितके प्रति उनकी शरणागत-वत्सलता सर्वोपरि है। वे चिरकाल तक हमारा पथ प्रदर्शन करें यही भावना है। वर्णी संध] (६०) चन्द्रमौलि, शास्त्री बत्तीस
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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