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________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास विद्वान सम्पादक के शब्दों में-- "दक्षिण भारतमें समन्तभद्रका उदय न केवल दिगम्बर परम्पराके इतिहास में वरन् संस्कृत साहित्यके इतिहास में भी एक महान युग प्रवर्तनका सूचक है ।" प्रसिद्ध विद्वान मुनि जिनविजयजीके कथनानुसार -- "ये जैनधर्म के महान प्रभावक और समर्थ संरक्षक महात्मा हैं, इन्होंने महावीरके सूक्ष्म सिद्धान्तोंका उत्तम स्थितीकरण किया, और भविष्य में होनेवाले प्रतिपक्षियों के कर्कश तर्क प्रहारसे जैन दर्शनको अक्षुण्ण रखनेके लिए अमोघ शक्तिशाली प्रमाण शास्त्रका सुदृढ़ संकलन किया । " वस्तुतः, स्वामी समन्तभद्र जैन वाङमय क्षितिजके पूर्ण भासमान अंशुमाली हैं, किसी भी अन्य विद्वानसे उनकी तुलना करना सूर्यको दीपक सम कहना है । भारतीय संस्कृति, दर्शन और साहित्य को उनकी देन निराली एवं महत्वपूर्ण हैं । ऐसे महान आचार्य होते हुए भी वे इतने अहंभाव शून्य थे कि उनकी स्वयंकी कृतियोंसे उनके संबंधका प्रायः कुछ भी इतिवृत्त प्राप्त नहीं होता। उनका समय भी अभी तक एक प्रकारसे अनिर्णीत समझा जाता है । पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार भी बहुत ऊहापोह करनेके पश्चात् इसी निष्कर्ष पर पहुंच सके हैं, कि “समन्तभद्र के यथार्थ समय के सम्बन्धमें कोई जंची तुली एक बात नहीं कही जा सकती । फिर भी इतना तो सुनिश्चित है कि समन्तभद्र विक्रम की पांचवीं शती से पीछे अथवा ईस्वी सन् ४५० के बाद नहीं हुए, और न वे विक्रमकी पहली शतीके ही विद्वान मालूम होते हैं - वे पहली से पांचवीं शतीके अन्तरालमें किसी समय हुए हैं । स्थूल रूपसे विचार करने पर हमें समन्तभद्र विक्रम की प्रायः दूसरी या तीसरी शतीके विद्वान मालूम होते हैं । परन्तु निश्चय पूर्वक अभी यह नहीं कहा जा सकता । " प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल संघवी ने भी प्रायः इसी मतका समर्थन इन शब्दों में किया है - "यदि हमारा अनुमान ठीक है तो ये दोनों ग्रन्थकार ( स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर ) विक्रमकी छठी शतीसे पूर्व ही हुए हैं। और आचार्य पूज्यपाद द्वारा किये गये इन दोनों स्तुतिकारोंके उल्लेखों की वास्तविकता को देखते हुए यह नितान्त संभव प्रतीत होता है कि ये दोनों ग्रन्थकार पूज्यपादके पूर्ववर्ती थे और इन दोनोंकी रचनाओंका पूज्यपादकी कृतियोंपर अत्यधिक प्रभाव पड़ा था । किन्तु, बाद में उन्होंने समन्तभद्र संबंधी अपने इस मतमें यकायक परिवर्तन कर दिया जैसा कि 'अकलङ्कग्रन्थत्रय' के प्राक्कथनमें आये - " अनेक विध ऊहापोह के बाद मुझको अब अति सष्ट हो गया है कि वे ( समन्तभद्र ) 'पूज्यपाद देवनन्दी' के पूर्व तो हुए ही नहीं । पूज्यपाद के द्वारा स्तुत आप्त के समर्थन १ बो. गजेटियर भा. १, भ. २ पृ० ४०६ । २ 'सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' जैन साहित्य संशोधक, भा० १, अंक १, पृ० ६ । ३ स्वामी समन्तभद्र पृ० १९६ । ४ सम्मतितर्क की अंग्रेजी भूमिका पृ० ६३ । ३८१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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