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________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ मुर्जार्धमधोभागे तस्योर्ध्वं मुरजो यथा। आकारास्तस्य लोकस्य किन्त्वेष चतुरस्रकः ॥ ७॥ ये हरिवंश पुराणके वाक्य हैं जो शक सं० ७०५ ( वि० सं० ८४० ) में बनकर समाप्त हुश्रा है । इनमें उक्त श्राकृतिवाले छह द्रव्योंके आधारभूत लोकको चौकोर (चतुरस्रक ) बतलाया है-गोल नहीं, जिसे लम्बा चौकोर समझना चाहिये । (ख) सत्तेक्कु पंचइक्का मूले मज्झे तहेव बंभंते । लोयंते रज्जूश्रो पुवावरदो य वित्थारो ॥ ११८ ॥ दक्खिण-उत्तरदो पुण सत्त विरज्जू हवेदि सव्वत्थ । उड्ढो चउदसरज्जू सत्तवि रज्जू घणो लोश्रो ॥ ११६ ॥ ये स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाएं हैं, जो एक बहुत प्राचीन ग्रन्थ है और वीरसेनसे कई शती पहले बना है । इनमें लोकके पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिणके राजुत्रोंका उक्त प्रमाण बहुत ही सष्ट शब्दोंमें दिया हुआ है और लोकको चौदह राजु ऊंचा तथा सात राजूके घनरूप (३४३ राजु ) भी बतलाया है। इन प्रमाणोंके सिवाय जम्बूद्वीपप्रज्ञाप्तिकी पश्चिम-पुत्व दिसाए विक्खभो होय तस्स लोगस्स । सत्तेग पच-एया मूलादो होति रज्जूणि ॥४-१६ ।। दक्षिण-उत्तरदो पुण विक्खंभो होय सत्तरज्जूणि। चदुसु विदिसासु भागे चउदस रज्जूणि उत्तुंगो ॥४-१७॥ इन दो गाथाश्रोंमें लोककी पूर्व-पश्चिम और उत्तर दक्षिण चौड़ाई-मोटाई तथा ऊंचाईका परिमाण स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथात्रोंके अनुरूप ही दिया है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति एक प्राचीन ग्रन्थ है और उन पद्मनन्दी प्राचार्यकी कृति है जो बलनन्दीके शिष्य तथा वीरनन्दीके प्रशिष्य थे और आगमोदेशक महासत्व श्रीविजय भी जिनके गुरु थे । श्रीविजय गुरुसे सुपरिशुद्ध श्रागमको सुन कर तथा जिन वचन विनिर्गत अमतभूत अर्थ पदको धारण करके उन्हींके माहात्म्य अथवा प्रसादसे उन्होंने यह ग्रन्थ उ श्रीनन्दी मुनिके निमित्त रचा है जो माघनन्दी मुनिके शिष्य अथवा प्रशिष्य (सकलचन्द्र' शिष्यके शिष्य ) थे, ऐसा ग्रन्थकी प्रशस्तिसे जाना जाता है। बहुत संभव है कि ये श्रीविजय वे ही हों जिनका दूसरा नाम 'अपराजित-सू रि' था जिन्होंने श्रीनन्दीकी प्रेरणाको पाकर भगवती-अाराधना पर 'विजयोदया' नामको टीका लिखी है और जो बलदेव-सूरिके शिष्य तथा चन्द्रनन्दीके प्रशिष्य थे । और यह भी संभव है कि उनके प्रगुरु चन्द्रनन्दी वे ही हों जिनकी एक शिष्य परम्पराका उल्लेख श्रीपुरुषके दानपत्र अथवा १. सकलचन्द्र शिष्यके नामोल्लेखवाली गाथा आमेरकी वि० सं० १५१८ की प्राचीन प्रतिमें नहीं है बादकी कुछ प्रतियों में है, इसीसे श्रीनन्दीके विषयमें माघनन्दीके प्रशिध्य होनेकी भी कल्पनाकी गयी है। ३४७
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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