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________________ षी-अभिनन्दन-ग्रन्थ 'नागमंगल' ताम्रपत्रमें पाया जाता है, जो श्रीपुरके जिनालयके लिए शक स० ६९८ (वि० सं० ८३३ ) में लिखा गया है और जिसमें चन्द्रनन्दीके एक शिष्य कुमारनन्दी, कुमारनन्दीके शिष्य कीर्तिनन्दी और कीर्तिनन्दीके शिष्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। इससे चन्द्रनन्दीका समय शक संवत् ६३८ से कुछ पहलेका हो जान पड़ता है । यदि यह कल्पना ठीक है तो श्रीविजयका समय शक संवत् ६५८ के लगभग प्रारंभ होता है और तब जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका समय शक सं० ६७० अर्थात् वि० सं० ८०५ के श्रास पासका होना चाहिये । ऐसी स्थितिमें जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकी रचना भी धवलासे पहलेकी-६८ वर्ष पूर्वकी-ठहरती है। ऐसी हालतमें यह लिखना कि 'वोरसेन स्वामीके सामने राजवार्तिक आदिमें बतलाये गये अाकारके विरुद्ध लोकके श्राकारको सिद्ध करनेके लिए केवल उपर्युक्त दो गाथाएं ही थीं । इन्हीं के आधार पर वे लोकके श्राकारको भिन्न प्रकारसे सिद्ध कर सके तथा यह भी कहनेमें समर्थ हुए... इत्यादि' संगत नहीं मालूम होता। और न इस श्राधारपर तिलोयपण्णत्तीको वीरसेनसे बादकी बनी हुई अथवा उनके मतका अनुसरण करनेवाली बतलाना ही सिद्ध किया जा सकता है । वीरसेनके सामने तो उस विषयके न मालूम कितने ग्रंथ थे जिनके आधार पर उन्होंने अपने व्याख्यानादिको उसी तरह सृष्टि की है जिस तरह कि अकलंक और विद्यानन्दादिने अपने राजवार्तिक श्लोकवार्तिकादि ग्रन्थों में अनेक विषयोंका वर्णन और विवेचन बहुतसे ग्रंथोंके नामोल्लेखके विना भी किया है । (२) द्वितीय प्रमाणको उपस्थित करते हुए यह तो बतलाया गया है कि 'तिलोयपण्णत्तीके प्रथम अधिकारकी सातवी गाथासे लेकर सतासीवीं गाथा तक इक्यासी गाथाओंमें मंगल आदि छह अधिकारोंका जो वर्णन है वह पूरा का पूरा वर्णन संतपरूवणाको धवलाटीकामें आये हुए वर्णनसे मिलता जुलता है।' साथ हो इस सादृश्य परसे यह भी फलित करके बतलाया कि 'एक ग्रन्थ लिखते समय दूसरा ग्रन्थ अवश्य सामने रहा है।' परन्तु 'धवलाकारके सामने तिलोयपण्णत्ती नहीं रही, धवलामें उन छह अधिकारोंका वर्णन करते हुए जो गाथाएं या श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे सब अन्यत्रसे लिये गये हैं तिलोयपण्णत्तीसे नहीं, इतना ही नहीं बल्कि धवलामें जो गाथाएं या श्लोक अन्यत्रसे उद्धृत है उन्हें भी तिलोयपण्णत्तोके मूलमें शामिल कर लिया गया है' इस दावेको सिद्ध करनेके लिए कोई भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया । केवल सूचना अभीष्टकी सिद्धि में सहायक नहीं होती अतः वह निरर्थक ठहरता है । वाक्योंकी शाब्दिक या आर्थिक समानता परसे तो यह भी कहा जा सकता है कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्णत्ती रही है, बल्कि ऐसा कहना, तिलोयपण्णत्तीके व्यवस्थित मौलिक कथन और धवलाकारके कथनकी व्याख्यान शेलीको देखते हुए, अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। रही यह बात कि तिलोयपण्णत्तीको पचासीवी गाथामें विविध ग्रंथ-युक्तियोंके द्वारा मंगलादिक ३४८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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