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________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ छह अधिकारोंके व्याख्यानका उल्लेख है, ' तो उससे यह कहां फलित होता है कि उन विविध ग्रन्थों में धवला भी शामिल है अथवा धवला परसे ही इन अधिकारोंका संग्रह किया गया है ? - खास कर ऐसी हालत में जब कि धवलाकार स्वयं 'मंगल- णिमित्त हेऊ' नामकी एक भिन्न गाथा को कहीं से उद्धृत करके यह बतला रहे हैं कि 'इस गाथा में मंगलादिक छह बातोंका व्याख्यान करनेके पश्चात् श्राचार्य के लिए शास्त्रका ( मूलग्रंथका ) व्याख्यान करनेकी जो बात कही गयी है वह श्राचार्य परम्परा से चला श्राया न्याय है, उसे हृदयमें धारण करके और पूर्वाचार्योंके श्राचार ( व्यवहार ) का अनुसरण करना रत्नत्रयका हेतु है ऐसा समझ कर. पुष्पदन्ताचार्य मगलादिक छह अधिकारोंका सकारण प्ररूपण करनेके लिए मंगल सूत्र कहते हैं२ ।' इससे स्पष्ट है कि मंगलादिक छह अधिकारोंके कथनकी परिपाटी बहुत प्राचीन है— उनके विधानादिका श्रेय धवलाको प्राप्त नहीं है । इसलिए तिलोयपण्णत्तीकारने यदि इस विषय में पुरातन चाय की कृतियोंका अनुसरण किया है तो वह न्याय्य ही है, परन्तु उतने मात्र से उसे धवलाका अनुसरण नहीं कहा जा सकता | धवलाका अनुसरण कहनेके लिए पहले यह सिद्ध करना होगा कि धवला तिलोयपण्णत्तीसे पूर्वकी कृति है, जो कि सिद्ध नहीं है । प्रत्युत इसके यह स्वयं धवलाके उल्लेखोंसे ही सिद्ध है कि धवलाकार के सामने तिलोयपण्णत्ती थी, जिसके विषयमें दूसरी तिलोयपण्णत्ती होनेकी कल्पना तो की जाती है परन्तु यह नहीं कहा जाता और कहा जा सकता है कि उसमें मंगलादिक छह अधिकारोंका वह सब वर्णन नहीं था जो वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में पाया जाता है; तब धवलाकार के द्वारा तिलोयपण्णत्तीके अनुसरणकी बात ही अधिक संभव और युक्तियुक्त जान पड़ती है । फलतः दूसरा प्रमाण भी साधक नहीं है । ( ३ ) तीसरा प्रमाण अथवा युक्तिवाद प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि उसे पढ़ते समय ऐसा मालूम होता है कि तिलोयपण्णत्ती में धवला से उन दो संस्कृत श्लोकोंको कुछ परिवर्तन के साथ अपना लिया गया है जिन्हें धवला में कहीं से उद्धृत किया गया था और जिनमें से एक श्लोक कलंक देव के लघीयस्त्रया 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' नामका है।' परन्तु दोनों ग्रन्थोंको जब खोलकर देखते हैं तो मालूम होता है कि तिलोय पण्णत्तीकारने धवलोद्धृत उन दोनों संस्कृत श्लोकोंको अपने ग्रन्थका अंग नहीं बनाया—वहां प्रकरण के साथ कोई संस्कृत श्लोक हैं हो नहीं, दो गाथाएं हैं, जो मौलिक रूपमें स्थित हैं और प्रकरण के साथ संगत हैं। इसी तरह लघीयस्त्रय वाला पद्य धवलामें उसी रूपमें उद्धृत नहीं जिस रूप में कि वह लघीयस्त्रयमें पाया जाता है— उसका प्रथम चरण 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' के स्थानपर 'ज्ञानं प्रमाणमित्याहु:' के रूपमें उपलब्ध है । और दूसरे चरण में 'इष्यते' की जगह 'उच्यते' क्रियापद है । १ 'मंगल पहुदि छक्कं बक्खाणिय विविध गन्थ जुत्तीहिं' २ “इदि णायमाइरिय-परंपरागयं मणेगावहारिय पुत्राइरियायाराणुसरण ति रयण - हे उत्ति पुप्फदताइरियों मंगलादीण छण्णं सकारणाण परूवणठ सुत्तमाह । " ३४९
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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