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________________ वर्णो अभिनन्दन ग्रन्थ के अगाध जलपरसे आनेसे ठंडी पड़ जाती थीं। उनमें क्रमशः जम्बूद्वीपकी ओर गहराई कम होने एवं स्थलभाग पास होनेसे सन्ताप अधिक बढ़ता जाता है, इसी कारण यहां गर्मी अधिक पड़ने लगती है। यहां तक कि सूर्य जब जम्बूद्वीपके भीतरी अन्तिम मार्गपर पहुंचता है तब यहां पर सबसे अधिक गर्मी पड़ती है । उत्तरायणका प्रारंभ मकर संक्रान्तिको और दक्षिणायनका प्रारंभ कर्क संक्रांतिको होता है । उत्तरायणके प्रारंभ में १२ मुहुर्त्तका दिन और १८ मुहुर्त की रात्रि होती है। दिनमानका प्रमाण निम्नप्रकार बताया है । पर्व संख्याको १५ से गुणाकर तिथि संख्या जोड़ देना चाहिए, इस तिथि संख्या में से एक सौ बीस तिथिपर आने वाले अवको घटाना चाहिए | इस शेषमें १८३ का भाग देकर जो शेष रहे उसे दूना कर ६१ का भाग देना चाहिये जो लब्ध आवे उसे दक्षिणायन हो तो १८ मुहूर्त्त में से घटाने पर दिनमान और उत्तरायण हो तो १२ मुहूर्त में जोड़ने पर दिनमान आता है | उदाहरणार्थ युगके आठ पर्व वीत जानेपर तृतीया के दिन दिनमान निकालना है अतः १५×८ = १२०+३ = १२३ – १ = १२२÷१८३ = ० + १२३ = १२२४२ = २४४ ÷६१ = ४, दक्षिणायन होने से १८ – ४ = १४ मुहूर्त दिनमानका प्रमाण हुआ । वेदाङ्गज्योतिष में दिनमान सम्बंधी यह प्रक्रिया नहीं मिलती है, उस कालमें केवल १८-१२ = ६÷१८३=६१ वृद्धि-हास रुप दिनमानका प्रमाण साधारणानुपात द्वारा निकाला गया है । फलतः उपयुक्त प्रक्रिया विकसित और परिष्कृत है इसका उत्तरकालीन पितामह के सिद्धान्तपर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा है । पितामहने जैन प्रक्रिया में थोड़ासा संशोधन एवं परिवर्द्धन करके उत्तरायण या दक्षिणायनके दिनादिमें जितने दिन व्यतीत हुए हों उनमें ७३२ जोड़ देना चाहिये फिर दूना करके ६१ का भाग देने से जो लब्ध आवे उसमें से १२ घटा देने पर दिनमान निकालना बताया है । पितामहका सिद्धान्त सूक्ष्म होकर भी जैन प्रक्रिया से स्पष्ट प्रभावित मालूम होता है । नक्षत्रोंके आकार सम्बन्धी उल्लेख जैन ज्योतिषकी अपनी विशेषता हैं । चन्द्रप्रज्ञप्ति में नक्षत्रोंके आकार-प्रकार, भोजन - वसन आदिका प्रतिपादन करते हुए बताया गया है कि अभिजित् नक्षत्र गोशृङ्ग, श्रवण नक्षत्र कपाट, धनिष्ठा नक्षत्र पक्षीके पिंजरा, शतभिषा नक्षत्र पुष्पकी राशि, पूर्वाभाद्रपद एवं उत्तराभाद्रपद अर्ध-वावड़ी, रेवती नक्षत्र कटे हुए अर्ध फल, अश्विनी नक्षत्र अश्वस्कन्ध, भरिणी नक्षत्र स्त्री की योनि, कृत्तिका नक्षत्र ग्राह, रोहणी नक्षत्र शकट, मृगशिरा नक्षत्र मृगमस्तक, आर्द्रा नक्षत्र रुधिर बिन्दु, पुनर्वसु नक्षत्र चूलिका, पुष्य नक्षत्र बढ़ते हुए चन्द्र, आश्लेषा नक्षत्र ध्वजा, मघा नक्षत्र प्राकार, पूर्वाफल्गुनी एवं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र अर्ध - पल्यङ्ग, हस्त नक्षत्र हथेली, चित्रा नक्षत्र मउआके पुष्प, स्वाति नक्षत्र खीले, विशाखा नक्षत्र दामिनी,अनुराध नक्षत्र एकावली, ज्येष्ठा नक्षत्र गजदन्त, मूल नक्षत्र बिच्छू, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र १ ज्योतिषकरण्डक, गाथा ३११- २० । २ "द्वयग्निनमेषूत्तरतः "पद्य, पञ्चसिद्धान्तिका । ४७६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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