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________________ भारतीय ज्योतिषका पोषक जैन-ज्योतिष अयन सम्बन्धी जैन ज्योतिषकी प्रक्रिया तत्कालीन ज्योतिष ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक विकसित एवं मौलिक है। इसके अनुसार सूर्यका चारक्षेत्र सूर्य के भ्रमण मार्गकी चौड़ाई-पांच सौ दश योजनसे कुछ अधिक बताया गया है, इसमें से एक सौ अस्सी योजन चारक्षेत्र तो जम्बूद्वीपमें है और अवशेष तीन सौ तीस योजन प्रमाण लवणसमुद्रमें है, जो कि जम्बूद्वीपको चारों ओरसे घेरे हुए है । सूर्य के भ्रमण करनेके मार्ग एक सौ चौरासी हैं इन्हें शास्त्रीय भाषामें वीथियां कहा जाता है। एक सौ चौरासी भ्रमण मार्गों में एक सूर्य का उदय एक सौ तेरासी बार होता है। जम्बूद्वीपमें दो सूर्य और दो चन्द्रमा माने गये हैं, एक भ्रमण मार्गको तय करनेमें दोनों सूर्योंको एक दिन और एक सूर्यको दो दिन अर्थात् साठ मुहूर्त लगते हैं । इस प्रकार एक वर्षमें तीन सौ छयासठ और एक अयनमें एक सौ तेरासी दिन होते हैं । । सूर्य जब जम्बूद्वीपके अन्तिम प्राभ्यन्तर मार्गसे बाहरकी ओर निकलता हुआ लवणसमुद्रकी तरफ जाता है तब बाहरी लवणसमुद्रस्थ अन्तिम मार्गपर चलनेके समयको दक्षिणायन कहते हैं और वहां तक पहुंचने में सूर्यको एक सौ तेरासी दिन लगते हैं। इसी प्रकार जब सूर्य लवणसमुद्रके बाह्य अन्तिम मार्गसे घूमता हुआ भीतर जम्बूद्वीपकी ओर आता है तब उसे उत्तरायण कहते हैं और जम्बूद्वीपस्थ अन्तिम मार्ग तक पहुंचनेमें उसे एक सौ तेरासी दिन लग जाते हैं । पञ्चवर्षात्मक युगमें उत्तरायण और दक्षिणायन सम्बन्धी तिथि-नक्षत्रका विधान' सर्वप्रथम युगके आरंभमें दक्षिणायन बताया गया है यह श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको अभिजित् नक्षत्रमें होता है । दूसरा उत्तरायण माघ कृष्णा सप्तमी हस्त नक्षत्रमें; तीसरा दक्षिणायन श्रावण कृष्णा त्रयोदशी मृगशिर नक्षत्रमें; चौथा उत्तरायण माघशुक्ला चतुर्थी शतभिषा नक्षत्रमें; पांचवा दक्षिणायन श्रावण शुक्ला दशमी विशाखा नक्षत्रमें; छठवां उत्तरायण माघ कृष्णा प्रतिपदा पुष्य नक्षत्रमें; सातवां दक्षिणायन श्रावण कृष्णा सप्तमी रेवती नक्षत्रमें; आठवां उत्तरायण माघ कृष्ण त्रयोदशी मूल नक्षत्रमें; नवमां दक्षिणायन श्रावण शुक्ल नवमी पूर्वाफाल्गुणी नक्षत्र में और दशवां उत्तरायण माघ कृष्णा त्रयोदशी कृत्तिका नक्षत्र में माना गया है किन्तु तत्कालीन ऋक् , याजुष् और अथर्व ज्योतिषमें युगके आदिमें प्रथम उत्तरायण बताया है । यह प्रक्रिया अब तक चली आ रही है । कहा नहीं जा सकता कि युगादिमें दक्षिणायन और उत्तरायणका इतना वैषम्य कैसे हो गया ? जैन मान्यताके अनुसार जब सूर्य उत्तरायण होता है-लवण समुद्र के बाहरी मार्गसे भीतर जम्बूद्वीपकी ओर जाता है-उस समय क्रमशः शीत घटने लगता है और गरमी बढ़ना शुरु हो जाती है । इस सर्दी और गर्मोके वृद्धि-हासके दो कारण हैं, पहला यह है कि सूर्यके जम्बूद्वीपके समीप आनेसे उसकी किरणोंका प्रभाव यहां अधिक पड़ने लगता है, दूसरा कारण यह कहा जा सकता है कि उसकी किरणे समुद्र १ "प्रथम बहुल पडिवए · · इत्यादि, सूर्यप्रशप्ति ( मलयगिर टीका सहित). पृ. २२२ । ४७५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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