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________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ अन्य प्रकारसे सिद्ध किया है। । योगाचारकी उक्त मान्यताका उन्होंने ऐसी युक्ति-प्रत्युक्तियों द्वारा खण्डन किया है जिन्हें देख कर प्राच्य तथा पाश्चत्य दार्शनिक स्तब्ध रह जाते हैं । वह इस प्रकार है-सौत्रान्तिकके समान योगाचार भी ज्ञानको साकार मानता है, किन्तु योगाचारका मत है कि ज्ञान मस्तिष्कसे बाहर किसी वस्तुसे उत्पन्न नहीं होता अपितु अविद्या जन्य अनादि वासनासे प्रादुर्भूत होता है और ज्ञान एक साथ ही उपलब्ध होने वाले प्रमेय तथा प्रमितिका सारूप्य है। प्राचार्थ प्रभाचन्द्र कहते हैं कि प्रमिति तथा प्रमेयकी कल्पना ही द्वैतको सिद्ध करती है, वोध विषयका ऐक्य नहीं। क्योंकि नील-प्रत्ययका तात्पर्य नील आकारका ज्ञान ही तो है। तथा स्तम्भ प्रत्ययके समान उसकी जड़ताका भी अवभास होता ही है । यहां दो प्रश्न उठते हैं—क्या ज्ञानके स्पष्ट दो पक्ष होते हैं या एक ? यदि दो पक्ष हैं तो प्रथम नील पदार्थकी नीलताका चेतन अवभास है तथा दूसरा उसकी जड़ताका अभेद ज्ञान है। किन्तु इस अवस्था में योगाचारको अपना विज्ञानाद्वैत छोड़ना ही पड़ेगा । यदि कोई तीसरा ज्ञान मान लिया जाय जो उक्त दोनों संस्कारोंको लेकर तथा द्विविध होकर पदार्थ ज्ञान करता है तो प्रारम्भिक ज्ञान अयोग्य हो जायगा और जड़ताको प्राप्त होगा । यदि हम ज्ञानका एक ही ऐसा पक्ष माने जो नीलता और जड़ अाकारका बोध कराता है तब वह एक ही समयमें अांशिक रूपसे चेतन-अचेतन होगा। स्वात्मभूत नीलताका बोध करके वह चेतन होगा तथा अपनेसे पृथक ( अतदाकार ) पदार्थके पौद्गलिक रूपको ग्रहण करके जड़ भी होगा। फलतः ज्ञान भी 'अर्धजरतो न्याय ' का शिकार हो जायगा । योगाचारके नीलता ज्ञान सम्बन्धी कठिनताका खण्डन करते समय अभयदेवने भी तीक्ष्ण तर्क किये हैं । निम्न प्रकरणमें योगाचार व्यति-ज्ञान की स्वयं प्रतिपन्नताका श्राश्रय लेकर अपना मत पुष्ट कर सकता है, कह सकता है कि जिस प्रकार मुख दुःखका स्व प्रतिभास होता है उसी प्रकार बोध तथा सुखादि प्रकाशनके मध्यमें व्याप्तिका भी हो जायगा ठीक इसी विधिसे जड़ नील पदार्थके ज्ञान और बोधके आत्मप्रकाशके मध्यमें व्यप्तिज्ञान हो जायगा। परिणाम यह होगा कि नीलपदार्थके बोधमें जो अचेतन भाग है वह अात्मज्ञानसे सम्बद्ध हो जायगा और अर्धजरती न्यायकी आपत्ति निराधार हो जायगी । प्रा० अभयदेव पूछते हैं क्या इसमें कोई वास्तविक व्याप्ति निश्चय है। इसका अाधार या तो दृष्टान्त होगा या समान हेतु । दृष्टान्त ऐसे निश्चयका आधार नहीं हो सकता, क्यों कि ऐसा करनेके पहिले यह देखना अनिवार्य है कि विपक्षमें बाधक न हो । प्रकृत व्याप्ति निश्चयमें विपक्षका न होना अकल्पनीय नहीं है । दूसरे सुख-दुःख प्रकाशकी नीलादिप्रकाशसे तुलना उचित नहीं है क्यों कि इन दोनों ( दृष्टान्त तथा दाान्तिक) १. प्रमे. क. मार्तण्ड पृ. २७ सम्मति तर्क पृ. ४८४ । २. आधी वृद्धा आधी युवती। ३. "सुखादि प्रकाशनं ज्ञानव्याप्तम् स्वयं प्रतिपन्नत्त्वात् ।"
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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